कृष्णांक
भीख
‘मां ! मैं तेरे पैरों पड़ता हूँ, एक बार मुझे उस प्राणधन के दर्शन करा दे, तेरा मंगल होगा, नहीं तो मैं यहीं धरना दिये बैठा रहूँगा, बिना दर्शन किये तो यहाँ से हटूँगा नहीं’। यशोदा साधु बाबा के दु:ख से दु:खी हुई, उसका कोमल हृदय द्रवित हो गया, भगवान ने मति फेर दी। उसने कहा– ‘अच्छा ! लाती हूँ, पर अधिक देर न ठहरना भला ! देखकर ही चले जाना’। इतना कहकर वह अन्दर चली गयी और नजर से बचाने के लिये माथे पर काजल की बिन्दी लगाकर लाल को गोद में लिये बाहर लौटी। देवदेव शंकर त्रिभुवन-मोहिनी बालछवि को देखकर मुग्ध हो गये। एकटकी लगाकर देखने लगे ! यशोदा ने कहा– ‘लो, अब जाती हूँ, बहुत देर हो गयी’। अब, महाराज की प्रेम-समाधि भंग हुई। वे बोले– ‘तनिक ठहर जा मैया, मुझे दो बात तो कर लेने दे। शिवजी ने नेत्रों की मूक-भाषा में ही मोहन प्यारे से बातें कीं। फिर मुग्ध होकर गाने लगे– सफल मम ईश जीवन आज । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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