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(लेखक- श्रीवृंदावनदासजी, बी. ए., एल. एल. बी)
सत्संग काल यापन का सर्वोत्कृष्ट साधन है। सत्संग से अपूर्व आनन्द, आन्तरिक आह्लाद और मन:शान्ति तो मिलती ही है इसके अतिरिक्त अज्ञान मितिर दूर होता है, विकार पास नहीं आने पाते, दुष्ट विचारों के उदय होने की संभावना कम रहती है, भाव शुद्ध हो जाते हैं, स्वास्थ्य बढ़ता है, चरित्र ऊंचा होता है और नम्रता आती है। सत्संग की महिमा अपार है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं उद्धव से कहा है-
न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च ।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा ।।
व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमा: ।
यथावरुन्धे सत्संग: सर्वसंगापहो हि माम् ।।[1]
सब संगो को छुड़ा देने वाला सत्संग जैसे मुझे वश में कर लेता है, वैसे अन्य यज्ञ, योग, तप, दान, धर्म, कर्म आदि साधन नहीं। आगे चलकर भगवान ने उद्धव से यहा तक कहा है, ‘हे उद्धव ! मुझे न तो योगी पाता है, न दानी और न व्रत, तप, यज्ञ, दान पाठ का करने वाला और न संन्यासी ही कोई मुझे पाता है। यदि पाता है तो सत्संग ही पाता है और सत्संग ही से मेरी भक्ति भी मिलती है’ ।
इस प्रकार सत्संग की महिमा अपार है, परन्तु सत्संग होना चाहिये सच्चा। सत् ईश्वर का नाम है। जहाँ केवल ईश्वर चर्चा हो, ईश्वर गुण गान हो और ईश्वरीय गुणों का अनुसरण हो, वही सच्चा सत्संग है, ऐसे सत्संग से परम लाभ अवश्य होता है। सच्चे ‘सत्संग’ के लिए सबसे पहली आवश्यकता है सत्संगियों में परस्पर ऊंच-नीच का भाव उपस्थित न होने की। ऊंच-नीच का भाव सत्संग की जड़ में कुठाराघात करता है और उसके उत्तम फल को कभी परिपक्क नहीं होने देता। उसमें दम्भियों को अपना प्रभुत्व स्थापित करने का अवसर मिल जाता है और हीन पद पर बैठ श्रोता सत्संगी के तर्क करने की शक्ति लोप हो जाती है। परिणाम यह होता है कि अन्धाधुन्धी चलती है, अनधिकारी जन केवल बड़ा माने जाने के कारण ही मिथ्या सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। भयभीत होने के कारण अन्य मनुष्य अपने को निम्न श्रेणी में समझते हैं और चूंतक नहीं करते। इस प्रकार मानसिक दौर्बल्य भले बढे़, सत्संग कुछ नहीं होता वरं कल्पित बड़ों के सामने मौन रहने की प्रणाली ही चल पड़ती है, जिससे बड़ा अनर्थ होता है। आप पूछ सकते हैं, बड़ों के सामने चुप रहने में अनर्थ ही क्या है ? हम आपका यथेष्ट समाधान करने की चेष्टा करेंगे ।
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