कृष्ण के आक्षेप पर दुर्योधन का उत्तर

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 61वें अध्याय में कृष्ण के आक्षेप पर दुर्योधन के उत्तर देने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

कृष्ण के आक्षेप पर दुर्योधन का उत्तर देना

संजय कहते हैं- राजन! प्रशंसा करने वाले वीरगण वहाँ एकत्र होकर भीमसेन से उपर्युक्त बातें कह रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि पुरुष सिंह पांचाल और पाण्डव अयोग्य बातें कह रहे हैं, तब वे वहाँ उन सबसे बोले- नरेश्वरों! मरे हुए शत्रु को पुनः मारना उचित नहीं है। तुम लोगों ने इस मन्दबुद्धि दुर्योधन को बारंबार कठोर वचनों द्वारा घायल किया है।[1] यह निर्लज पापी तो उसी समय मर चुका था जब लोभ में फंसा और पापियों को अपना सहायक बनाकर सुहृदयों के शासन से दूर रहने लगा। विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म तथा सृंजयों के बारंबार प्रार्थना करने पर भी इसने पाण्डवों को उनका पैतृक भाग नहीं दिया। यह नराधम अब किसी योग्य नहीं है। न यह किसी का मित्र है ओर न शत्रु। राजाओं! यह तो सूखे काठ के समान कठोर है। इसे कटुवचनों द्वारा अधिक झुकाने की चेष्ठा करने से क्या लाभ? अब शीघ्र अपने रथों पर बैठो। हम सब लोग छावनी की ओर चलें। सौभाग्य से यह पापात्मा अपने मन्त्री, कुटुम्ब और भाई-बन्धुओं सहित मार डाला गया।[2]

प्रजानाथ! श्रीकृष्ण के मुख से यह आक्षेपयुक्त वचन सुन राजा दुर्योधन अमर्ष के वशीभूत होकर उठा और दोनों हाथ पृथ्वी पर टेककर चूतड़ के सहारे बैठ गया। तत्पश्चात् उसने श्रीकृष्ण की ओर भौंहे टेढी करके देखा, उसका आधा शरीर उठा हुआ था। उस समय राजा दुर्योधन का रूप उस कुपित विषधर के समान जान पड़ता था, जो पूँछ कट जाने के कारण अपने आधे शरीर को ही उठाकर देख रहा हो। उसे प्राणों का अन्त कर देने वाली भयंकर वेदना हो रही थी, तो भी उसकी चिन्ता न करते हुए दुर्योधन ने अपने कठोर वचनों द्वारा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को पीड़ा देना प्रारम्भ किया-

कंस के दत्तक बेटे! मैं जो गदायुद्ध में अधर्म से मारा गया हूँ, इस कुकृत्य के कारण क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती है? भीमसेन को मेरी जांघें तोड़ डालने का मिथ्या स्मरण दिलाते हुए तुमने अर्जुन से जो कुछ कहा था, क्या वह मुझे ज्ञात नहीं है? सरलता से धर्मानुकूल युद्ध करने वाले सहस्रों भूमिपालों को बहुत-से कुटिल उपायें द्वारा मरवाकर न तुम्हें लज्जा आती है और न इस बुरे कर्म से घृणा ही होती है। जो प्रतिदिन शूरवीरों का भारी संहार मचा रहे थे, उन पितामह भीष्म का तुमने शिखण्डी को आगे रखकर वध कराया। दुर्मते! अश्वत्थामा के सदृश नाम वाले एक हाथी को मारकर तुम लोगों ने द्रोणाचार्य के हाथ से शस्त्र नीचे डलवा दिया था, क्या वह मुझे ज्ञात नहीं है? इस नृशंस धृष्‍टद्युम्न ने पराक्रमी आचार्य को उस अवस्था में मार गिराया, जिसे तुमने अपनी आंखों देखा; किंतु मना नहीं किया। पाण्डूपुत्र अर्जुन के वध के लिये मांगी हुई इन्द्र की शक्ति को तुमने घटोत्कच पर छुड़वा दिया। तुमसे बढ़कर महापापी कौन हो सकता है? बलवान भूरिश्रवा का हाथ कट गया था और वे आमरण अनशन का व्रत लेकर बैठे हुए थे। उस दशा में तुमसे ही प्रेरित होकर महामना सात्यकि ने उनका वध किया। मनुष्यों में अग्रगण्य कर्ण अर्जुन को जीतने की इच्‍छा से उत्तम पराक्रम कर रहा था। उस समय नागराज अश्वसेन को जो कर्ण के बाण के साथ अर्जुन के वध के लिये जा रहा था, तुमने अपने प्रयत्न से विफल कर दिया। फिर जब कर्ण के रथ का पहिया गड्डे में गिर गया और वह उसे उठाने में व्यक्रतापूर्वक संलग्न हुआ, उस समय उसे संकट पीड़ित एवं पराजित जानकर तुम लोगों ने मार गिराया। यदि मेरे, कर्ण के तथा भीष्म और द्रोणाचार्य के साथ मायारहित सरल भाव से तुम युद्ध करते तो निश्चय ही तुम्हारे पक्ष की विजय नहीं होती।[2] परंतु तुम जैसे अनार्य ने कुटिल मार्ग का आश्रय लेकर स्वधर्म-पालन में लगे हुए हम लोगों का तथा दूसरे राजाओं का भी वध करवाया है।

भगवान श्रीकृष्ण बोले- गान्धारीनन्दन! तुमने पाप के रास्ते पर पैर रखा था; इसीलिये तुम भाई, पुत्र, बान्धव, सेवक और सुहृद्गणों सहित मारे गये हो। वीर भीष्म और द्रोणाचार्य तुम्हारे दुष्कर्मों से ही मारे गये हैं। कर्ण भी तुम्हारे स्वभाव का ही अनुसरण करने वाला था; इसलिये युद्ध में मारा गया। ओ मूर्ख! तुम शकुनि की सलाह मानकर मेरे माँगने पर भी पाण्डवों को उनकी पैतृक सम्पत्ति, उनका अपना राज्य लोभवश नहीं देना चाहते थे। सुदुर्मते! तुमने जब भीमसेन को विष दिया, समस्त पाण्डवों को उनकी माता के साथ लाक्षागृह में जला डालने का प्रयत्न किया और लिर्नज्ज! दुष्टात्मन! द्यूतक्रीड़ा के समय भी सभा में रजस्वला द्रौपदी को जब तुम लोग घसीट लाये, तभी तुम वध के योग्य हो गये थे। तुमने द्यूतक्रीड़ा के जानकार सुबल पुत्र शकुनि के द्वारा उस कला को न जानने वाले धर्मज्ञ युधिष्ठिर को, छल से पराजित किया था, उसी पाप से तुम रणभूमि में मारे गये हो।[3]

जब पाण्डव शिकार के लिये तृणविन्दु के आश्रम पर चले गये थे, उस समय पापी जयद्रथ ने वन के भीतर द्रौपदी को जो क्लेश पहुँचाया और पापत्मन! तुम्हारे ही अपराध से बहुत-से योद्धाओं ने मिलकर युद्ध स्थल में जो अकेले बालक अभिमन्यु का वध किया था, इन्हीं सब कारणों से आज तुम भी रणभूमि में मारे गये हो। भीष्म पाण्डवों के अनर्थ की इच्छा रखकर समरभूमि में पराक्रम प्रकट कर रहे थे। उस समय अपने मित्रों के हित के लिये शिखण्डी ने जो उनका वध किया है, वह कोई दोष या अपराध की बात नहीं है। आचार्य द्रोण तुम्हारा प्रिय करने की इच्छा से अपने धर्म को पीछे करके असाधु पुरुषों के मार्ग पर चल रहे थे; अतः युद्धस्थल में धृष्टद्युम्न ने उनका वध किया है। विद्वान सात्वतवंशी सात्यकि ने अपनी सच्ची प्रतिज्ञा का पालन करने की इच्छा से समरांगण में अपने शत्रु महारथी भूरिश्रवा का वध किया था। राजन! समर भूमि में युद्ध करते हुए पुरुष सिंह अर्जुन कभी किसी प्रकार भी कोई निन्दित कार्य नहीं करते हैं! दुर्मते! अर्जुन ने वीरोचित सदाचार का विचार करके बहुत-से छिद्र (प्रहार करने के अवसर) पाकर भी युद्ध में कर्ण का वध नहीं किया है; अतः तुम उनके विषय में ऐसी बात न कहो। देवताओं का मत जानकर उनका प्रिय और हित करने की इच्छा से मैंने अर्जुन पर महानाग शास्त्र का प्रहार नहीं होने दिया। उसे वि़फल कर दिया। तुम भीष्म, कर्ण, द्रोण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य विराट नगर में अर्जुन की दयालुता से ही जीवित बच गये। याद करो, अर्जुन के उस पराक्रम को; जो उन्होंने तुम्हारे लिये उन दिनों गन्धर्वों पर प्रकट किया था। गान्धारीनन्दन! पाण्डवों ने यहाँ तुम्हारे साथ जो बर्ताव किया है, उसमें कौन सा अधर्म है। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर पाण्डवों ने अपने बाहुबल का आश्रय लेकर क्षत्रिय-धर्म के अनुसार विजय पायी है। तुम पापी हो, इसीलिये मारे गये हो। तुम जिन्हें हमारे किये हुए अनुचित कार्य बता रहे हो, वे सब तुम्हारे महान दोष से ही किये गये हैं।[3] तुमने बृहस्पति और शुक्राचार्य के नीति संबंधी उपदेश को नहीं सुना है, बड़े-बूढों की उपासना नहीं की है और उनके हितकर वचन भी नहीं सुने हैं। तुमने अत्यन्त प्रबल लोभ और तृष्णा के वशीभूत होकर न करने योग्य कार्य किये हैं; अतः उनका परिणाम अब तुम्हीं भोगो।[4]

दुर्योधन ने कहा- मैंने विधिपूर्वक अध्ययन किया, दान दिये, समुद्रों सहित पृथ्वी का शासन किया और शत्रुओं के मस्तक पर पैर रखकर मैं ख़ड़ा रहा। मेरे समान उत्तम अन्त (परिणाम) किसका हुआ है। अपने धर्म पर दृष्टि रखने वाले क्षत्रिय-बन्धुओं को जो अभीष्ठ है, वही यह मृत्यु मुझे प्राप्त हुई है; अतः मुझसे अच्छा अन्त और किसका हुआ है। जो दूसरे राजाओं के लिये दुर्लभ हैं, वे देवताओं को ही सुलभ होने वाले मानव भोग मुझे प्राप्त हुए हैं। मैंने उत्तम ऐश्वर्य पा लिया है; अतः मुण्से उत्कृष्ट अन्त और किसका हुआ है? अच्युत! मैं सुहृदों और सेवकों सहित स्वर्ग लोक में जाऊँगा और तुम लोग भग्नमनोरथ होकर शोचनीय जीवन बिताते रहोगे। भीमसेन ने अपने पैर से जो मेरे सिर पर आघात किया है, इसके लिये मुझे कोई खेद नहीं है; क्योंकि अभी क्षणभर के बाद कौए, कंक अथवा गृध्र भी तो इस शरीर पर अपना पैर रखेंगे।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-18
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 61 श्लोक 19-37
  3. 3.0 3.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 61 श्लोक 38-47
  4. 4.0 4.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 61 श्लोक 48-63

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