कृष्ण के अन्य विवाह

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! अब पाण्डवों का पता चल गया था कि वे लाक्षाभवन में जले नहीं हैं। एक बार भगवान श्रीकृष्ण उनसे मिलने के लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे। उनके साथ सात्यकि आदि बहुत-से यदुवंशी भी थे। जब वीर पाण्डवों ने देखा कि सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे प्राण का संचार होने पर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए। वीर पाण्डवों ने भगवान श्रीकृष्ण का आलिंगन किया, उनके अंग-संग से इनके सारे पाप-ताप धुल गये। भगवान की प्रेम भरी मुसकराहट से सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्द में मग्न हो गये। भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर और भीमसेन के चरणों में प्रणाम किया और अर्जुन को हृदय ले लगाया। नकुल और सहदेव ने भगवान के चरणों की वन्दना की।

जब भगवान श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हो गये; तब परम सुन्दरी श्यामवर्णी द्रौपदी, जो नवविवाहिता होने के कारण तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान श्रीकृष्ण के पास आयी और उन्हें प्रणाम किया। पाण्डवों ने भगवान श्रीकृष्ण के समान ही वीर सात्यकि का भी स्वागत-सत्कार और अभिनन्दन-वन्दन किया। वे एक आसन पर बैठ गये। दूसरे यदुवंशियों का भी यथायोग्य सत्कार किया गया तथा वे भी श्रीकृष्ण के चारों ओर आसनों पर बैठ गये। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण अपनी फूआ कुन्ती के पास गये और उनके चरणों में प्रणाम किया। कुन्तीजी ने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। उस समय उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। कुन्तीजी ने श्रीकृष्ण से अपने भाई-बन्धुओं की कुशल-क्षेम पूछी और भगवान ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधु द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मंगल पूछा। उस समय प्रेम की विह्वलता से कुन्तीजी का गला रूँध गया था, नेत्रों से आँसू बह रहे थे। भगवान के पूछने पर उन्हें अपने पहले के क्लेश-पर-क्लेश याद आने लगे और वे अपने को बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त क्लेशों का अन्त करने के लिये ही हुआ करता है, उन भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगीं- "श्रीकृष्ण! जिस समय तुमने हम लोगों को अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मंगल जानने के लिये भाई अक्रूर को भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो गया, हम अनाथों को तुमने सनाथ कर दिया। मैं जानती हूँ कि तुम सम्पूर्ण जगत के परम हितैषी सुहृद और आत्मा हो। यह अपना है और यह पराया, इस प्रकार की भ्रान्ति तुम्हारे अन्दर नहीं है। ऐसा होने पर भी, श्रीकृष्ण! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके हृदय में आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी क्लेश-परम्परा को सदा के लिये मिटा देते हो।"

युधिष्ठिर ने कहा- "सर्वेश्वर श्रीकृष्ण! हमें इस बात का पता नहीं है कि हमने अपने पूर्वजन्मों में या इस जन्म में कौन-सा कल्याण साधन किया है? आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी बड़ी कठिनता से प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियों को घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं।" राजा युद्धिष्ठिर ने इस प्रकार भगवान का खूब सम्मान किया और कुछ दिन वहीं रहने की प्रार्थना की। इस पर भगवान श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ के नर-नारियों को अपनी रूपमाधुरी से नयनानन्द का दान करते हुए बरसात के चार महीनों तक सुखपूर्वक वहीं रहे।

परीक्षित! एक बार वीरशिरोमणि अर्जुन ने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाण वाले दो तरकस लिये तथा भगवान श्रीकृष्ण के साथ कवच पहनकर अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर वानर-चिह्न से चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी। इसके बाद विपक्षी वीरों का नाश करने वाले अर्जुन उस गहन वन में शिकार खेलने गये, जो बहुत-से सिंह, बाघ आदि भयंकर जानवरों से भरा हुआ था। वहाँ उन्होंने बहुत-से बाघ, सूअर, भैसे, काले हरिन, शरभ, गवय[2], गैंडे, हरिन,, खरगोश और शल्लकी[3] आदि पशुओं पर अपने बाणों का निशाना लगाया। उनमें से जो यज्ञ के योग्य थे, उन्हें सेवकगण पर्व का समय जानकार राजा युधिष्ठिर के पास ले गये। अर्जुन शिकार खलेते-खेलते थक गये थे। अब वे प्यास लगने पर यमुना के किनारे गये। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महारथियों ने यमुनाजी में हाथ-पैर धोकर उनका निर्मल जल पिया और देखा कि एक परम सुन्दरी कन्या वहाँ तपस्या कर रही है। उस श्रेष्ठ सुन्दरी की जंघा, दाँत और मुख अत्यन्त सुन्दर थे। अपने प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के भेजने पर अर्जुन ने उसके पास जाकर पूछा- "सुन्दरी! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? कहाँ से आयी हो? और क्या करना चाहती हो? मैं ऐसा समझता हूँ कि तुम अपने योग्य पति चाह रही हो। हे कल्याणि! तुम अपनी सारी बात बतलाओ।"

कालिन्दी ने कहा- "मैं भगवान सूर्यदेव की पुत्री हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान विष्णु को पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ। वीर अर्जुन! मैं लक्ष्मी के परम आश्रय भगवान को छोड़कर और किसी को अपना पति नहीं बना सकती। अनाथों के एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। मेरा नाम है कालिन्दी। यमुना जल में मेरे पिता सूर्य ने मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है। उसी में मैं रहती हूँ। जब तक भगवान का दर्शन न होगा, मैं यहीं रहूँगी।" अर्जुन ने जाकर भगवान श्रीकृष्ण से सारी बातें कहीं। वे तो पहले से ही यह सब कुछ जानते थे, अब उन्होंने कालिन्दी को अपने रथ पर बैठा लिया और धर्मराज युधिष्ठिर के पास ले आये।

इसके बाद पाण्डवों की प्रार्थना से भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के रहने के लिये एक अत्यन्त अद्भुत और विचित्र नगर विश्वकर्मा के द्वारा बनवा दिया। भगवान इस बार पाण्डवों को आनन्द देने और उनका हित करने के लिए वहाँ बहुत दिनों तक रहे। इसी बीच अग्निदेव को खाण्डववन दिलाने के लिए वे अर्जुन के सारथि भी बने। खाण्डववन का भोजन मिल जाने से अग्निदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुन को गाण्डीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणों वाले तरकस और एक ऐसा कवच दिया, जिसे कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेद न सके। खाण्डव-दाह के समय अर्जुन ने मय दानव को जलने से बचा लिया था। इसलिये उसने अर्जुन से मित्रता करके उनके लिये एक परम अद्भुत सभा बना दी। उसी सभा में दुर्योधन को जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम हो गया था। कुछ दिनों के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियों का अनुमोदन प्राप्त करके सात्यकि आदि के साथ द्वारका लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने विवाह के योग्य ऋतु और ज्यौतिष-शास्त्र के अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्न में कालिन्दीजी का पाणिग्रहण किया। इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियों को परम मंगल और परमानन्द की प्राप्ति हुई।

अवन्ती (उज्जैन) देश के राजा थे विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधन के वशवर्ती तथा अनुयायी थे। उनकी बहिन मित्रविन्दा ने स्वयंवर में भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना पति बनाना चाहा, परन्तु विन्द और अनुविन्द ने अपनी बहिन को रोक दिया। परीक्षित! मित्रविन्दा श्रीकृष्ण की फूआ राजाधिदेवी की कन्या थी। भगवान श्रीकृष्ण राजाओं की भरी सभा में उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये।

परीक्षित! कोसलदेश के राजा थे नग्नजित। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परम सुन्दरी कन्या का नाम था सत्या; नग्नजित की पुत्री होने से वह 'नाग्नजिती' भी कहलाती थी। परीक्षित! राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार सात दुर्दान्त बैलों पर विजय प्राप्त न कर सकने के कारण कई राजा उस कन्या से विवाह न कर सके। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुष की गन्ध भी नहीं सह सकते थे। जब यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलों को जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे। कोसलनरेश महाराज नग्नजित ने बड़ी प्रसन्नता से उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्री से उनका सत्कार किया। भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया। राजा नग्नजित की कन्या सत्या ने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि "यदि मैंने व्रत-नियम आदि का पालन करके इन्हीं का चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसा को पूर्ण करें।" नाग्नजिती सत्या मन-ही-मन सोचने लगी- "भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपंकज का पराग अपने सिर पर धारण करते हैं और जिन प्रभु ने अपनी बनायी हुई मर्यादा का पालन करने के लिये ही समय-समय पर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियम से प्रसन्न होंगे? वे तो केवल अपनी कृपा से ही प्रसन्न हो सकते हैं।" परीक्षित! राजा नग्नजित ने भगवान श्रीकृष्ण की विधिपूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की- "जगत के एकमात्र स्वामी नारायण! आप अपने स्वरूपभूत आनन्द ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! राजा नग्नजित का दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान श्रीकृष्ण बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मुसकराते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से कहा- "राजन! जो क्षत्रिय अपने धर्म में स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ विद्वानों ने उसके इस कर्म की निन्दा की है। फिर भी मैं आपसे सौहार्द का, प्रेम का सबन्ध स्थापित करने के लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ इसके बदले में कुछ शुल्क देने की प्रथा नहीं है।"

राजा नग्नजित ने कहा- "प्रभो! आप समस्त गुणों के धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं। आपके वक्षःस्थल पर भगवती लक्ष्मी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। आपसे बढ़कर कन्या के लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो सकता है? परन्तु यदुवंशशिरोमणे! हमने पहले ही इस विषय में एक प्रण कर लिया है। कन्या के लिये कौन-सा वर उपयुक्त है, उसका बल-पौरुष कैसा है, इत्यादि बातें जानने के लिये ही ऐसा किया गया है। वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण! हमारे ये सातों बैल किसी के वश में न आने वाले और बिना सधाये हुए हैं। इन्होंने बहुत-से राजकुमारों के अंगों को खण्डित करके उनका उत्साह तोड़ दिया है। श्रीकृष्ण! यदि इन्हें आप ही नाथ लें, अपने वश में कर लें, तो लक्ष्मीपते! आप ही हमारी कन्या के लिये अभीष्ट वर होंगे।" भगवान श्रीकृष्ण ने राजा नग्नजित का ऐसा प्रण सुनकर कमर में फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेल में ही उन बैलों को नाथ लिया। इससे बैलों का घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौरुष भी जाता रहा। अब भगवान श्रीकृष्ण उन्हें रस्सी से बाँधकर इस प्रकार खींचने लगे, जैसे खेलते समय नन्हा-सा बालक काठ के बैलों को घसीटता है। राजा नग्नजित को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण को अपनी कन्या का दान कर दिया और सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपने अनुरूप पत्नी सत्या का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। रानियों ने देखा कि हमारी कन्या को उसके अत्यन्त प्यारे भगवान श्रीकृष्ण ही पति के रूप में प्राप्त हो गये हैं। उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और चारों ओर बड़ा भारी उत्सव मनाया जाने लगा। शंख, ढोल, नगारे बजने लगे। सब ओर गाना-बजाना होने लगा। ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे। सुन्दर वस्त्र, पुष्पों के हार और गहनों से सज-धजकर नगर के नर-नारी आनन्द मनाने लगे। राजा नग्नजित ने दस हज़ार गौएँ और तीन हज़ार ऐसी नवयुवती दासियाँ जो सुन्दर वस्त्र तथा गले में स्वर्णहार पहने हुए थीं, दहेज़ में दीं। इसके साथ ही नौ हज़ार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेज में दिये। कोसलनरेश राजा नग्नजित ने कन्या और दामाद को रथ पर चढ़ाकर एक बड़ी सेना के साथ विदा किया। उस समय उनका हृदय वात्सल्य-स्नेह के उद्रेक से द्रवित हो रहा था।

परीक्षित! यदुवंशियों ने और राजा नग्नजित के बैलों ने पहले बहुत-से राजाओं का बल-पौरुष धूल में मिला दिया था। जब उन राजाओं ने यह समाचार सुना, तब उनसे भगवान श्रीकृष्ण की यह विजय सहन न हुई। उन लोगों ने नाग्नजिती सत्या को लेकर जाते समय मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण को घेर लिया और वे बड़े वेग से उन पर बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय पाण्डव वीर अर्जुन ने अपने मित्र भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय करने के लिये गाण्डीव धनुष धारण करके-जैसे सिंह छोटे-मोटे पशुओं को खदेड़ दे, वैसे ही उन नरपतियों को मार-पीटकर भगा दिया। तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण उस दहेज़ और सत्या के साथ द्वारका में आये और वहाँ रहकर गृहस्थोचित विहार करने लगे।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण की फूआ श्रुतकीर्ति केकय देश में ब्याही गयी थीं। उनकी कन्या का नाम था भद्रा। उसके भाई सन्तर्दन आदि ने उसे स्वयं ही भगवान श्रीकृष्ण को दे दिया और और उन्होंने उसका पाणिग्रहण किया। मद्रप्रदेश के राजा की एक कन्या थी लक्ष्मणा। वह अत्यन्त सुलक्षणा थी। जैसे गरुड़ ने स्वर्ग से अमृत का हरण किया था, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में अकेले ही उसे हर लिया। परीक्षित! इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की और भी सहस्रों स्त्रियाँ थीं। उन परम सुन्दरियों को वे भौमासुर को मारकर उसके बंदीगृह से छुड़ा लाये थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 58, श्लोक 01-58
  2. नीलापन लिये हुए भूरे रंग का एक बड़ा हिरन
  3. साही

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः