कृष्ण का हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र और गांधारी को आश्वासन देना

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 63वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने युधिष्ठिर की प्रेरणा से कृष्ण का हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र और गांधारी को आश्वासन देने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर जाने के कारण का वर्णन

जनमेजय ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! धर्मराज युधिष्ठिर ने शत्रुसंतापी भगवान श्रीकृष्ण को गांधारी देवी के पास किसलिये भेजा? जब पूर्वकाल में श्रीकृष्ण संधि कराने के लिये कौरवों के पास गये थे, उस समय तो उन्हें उनका अभीष्ट मनोरथ प्राप्त ही नहीं हुआ, जिससे यह युद्ध उपस्थित हुआ। ब्रह्मन! जब युद्ध में सारे योद्धा मारे गये, दुर्योधन का भी अन्त हो गया, भूमण्डल में पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के शत्रुओं का सर्वथा अभाव हो गया, कौरव दल के लोग शिवि को सूना करके भाग गये और पाण्डवों के उस यश की प्राप्ति हो गयी, तब कौन-सा ऐसा कारण आ गया, जिससे श्रीकृष्ण पुनः हस्तिनापुर में गये? प्रियवर! मुझे इसका कोई छोटा मोटा कारण नहीं जान पड़ता, जिससे अप्रमेयस्वरूप साक्षात भगवान जनार्दन को ही जाना पड़ा। यजुर्वेदीय विद्वानों में श्रेष्ठ ब्राह्मणदेव! इस कार्य का निश्चय करने में जो भी कारण हो, वह सब यथार्थ रूप से मुझे बताइये।

वैशम्पायन जी ने कहा- भरतकुलभूषण नरेश! तुमने जो प्रश्न किया है, वह सर्वथा उचित है। तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब मैं तुझे यथार्थ रूप से बताऊँगा। राजन! भरतवंशी! धृतराष्ट्रपुत्र महाबली दुर्योधन को भीमसेन ने युद्ध में उसके नियम का उल्लंघन करके मारा है। वह गदा युद्ध के द्वारा अन्यायपूर्वक मार गया है। इन सब बातों पर दृष्टिपात करके युधिष्ठिर के मन में बड़ा भारी भय समा गया। वे घोर तपस्या से युक्त महाभागा तपस्विनी गांधारी देवी का चिन्तन करने लगे। उन्होंने सोचा गांधारी देवी कुपित होने पर तीनों लोकों को जलाकर भस्म कर सकती हैं। इस प्रकार चिन्ता करते हुए राजा युधिष्ठिर के हृदय में उस समय यह विचार हुआ कि पहले क्रोध से जलती हुई गांधारी को शान्त कर देना चाहिये। वे हम लोगों के द्वारा इस तरह पुत्र का वध किया गया सुनकर कुपित हो अपने संकल्पजनित अग्नि से हमें भस्म कर डालेंगी। उनका पुत्र सरलता से युद्ध कर रहा था; परंतु छल से मारा गया। यह सुनकर गांधारी देवी इस तीव्र दुःख को कैसे सह सकेगीं? इस तरह अनेक प्रकार से विचार करके धर्मराज युधिष्ठिर भय और शोक में डूब गये और वसुदेव नन्दन भगवान श्रीकृष्ण से बोले- गोविन्द! अच्युत! जिसे मन के द्वारा भी प्राप्त करना असम्भव था, वही यह अकण्टक राज्य हमें आपकी कृपा से प्राप्त हो गया। यादवनन्दन! महाबाहो! इस रोमांचकारी संग्राम में जो महान विनाश प्राप्त हुआ था, वह सब आपने प्रत्यक्ष देखा था। पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम के अवसर पर जैसा आपने देवद्रोही दैत्यों के वध के लिये देवताओं की सहायता की थी, जिससे वे सारे देवशत्रु मारे गये, महाबाहु अच्युत! उसी प्रकार इस युद्ध में आपने हमें सहायता प्रदान की है। वृष्णिनन्दन! आपने सारथि का कार्य करके हम लोगों को बचा लिया। यदि आप इस महासमर में अर्जुन के स्वामी और सहायक न होते तो युद्ध में इस कौरव-सेनारूपी समुद्र पर विजय पाना कैसे सम्भव हो सकता था?[1]

श्रीकृष्ण! आपने हम लोगों के लिये गदाओं के बहुत-से आघात सहे, परिघों की मार खायी; शक्ति, भिन्दिपाल, तोमर और फरसों की चोटें सहन कीं तथा बहुत-सी कठोर बातें सुनीं। आपके ऊपर रणभूमि में ऐसे-ऐसे शस्त्रों के प्रहार हुए, जिनका स्पर्श वज्र के तुल्य था। अच्युत! दुर्योधन के मारे जाने पर वे सारे आघात सफल हो गये। श्रीकृष्ण! अब ऐसा कीजिये, जिससे वह सारा किया-कराया कार्य फिर नष्ट न हो जाय। श्रीकृष्ण! आज विजय हो जाने पर भी हमारा मन संदेह के झूला पर झूल रहा है। महाबाहु माधव! आप गांधारी देवी के क्रोध पर तो ध्यान दीजिये। महाभागा गांधारी प्रतिदिन उग्र तपस्या से अपने शरीर को दुर्बल करती जा रही हैं। वे पुत्रों और पौत्रों का वध हुआ सुनकर निश्चय ही हमें जला डालेंगी। वीर! अब उन्‍हें प्रसन्न करने का कार्य ही मुझे समयोचित जान पड़ता हैं। पुरुषोत्तम! आपके सिवा दूसरा कौन ऐसा पुरुष है, जो पुत्रों के शोक से दुर्बल हो क्रोध से लाल आंखें करके बैठी हुई गांधारी देवी की ओर आंख उठाकर देख सके। शत्रुओं का दमन करने वाले माधव! इस समय क्रोध से जलती हुई गांधारी देवी को शान्त करने के लिये आपका वहाँ जान ही मुझे उचित जान पड़ता है। महाबाहो! आप सम्पूर्ण लोकों के स्रष्टा और संहारक हैं। आप ही सबकी उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। आप युक्ति और कारणों से संयुक्त समयोचित वचनों द्वारा गांधारी देवी को शीघ्र ही शान्त कर देंगे। हमारे पितामह श्रीकृष्ण द्वैपायन भगवान व्यास भी वहीं होंगे। महाबाहो! सात्वत वंश के श्रेष्ठ पुरुष! आप पाण्डवों के हितैषी हैं। आपको सब प्रकार से गांधारी देवी के क्रोध को शान्त कर देना चाहिये।[2]

कृष्ण का हस्तिनापुर पहुँचना

धर्मराज की यह बात सुनकर यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण ने दारुक को बुलाकर कहा- रथ तैयार करो। केशव का यह आदेश सुनकर दारुक ने बड़ी उतावली के साथ रथ को सुसज्जित किया और उन महात्मा को इसकी सूचना दी। शत्रुओं को संताप देने वाले यादव श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण तुरंत ही उस रथ पर आरूढ़ हो हस्तिनापुर की ओर चल दिये। महाराज! पराक्रमी भगवान माधव उस रथ पर बैठकर हस्तिनापुर में जा पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया। नगर में प्रविष्ट होकर वीर श्रीकृष्ण अपने रथ के गम्भीर घोष से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करने लगे। धृतराष्ट्र को उनके आगमन की सूचना दी गयी और वे अपने उत्तम रथ से उतरकर मन में दीनता न लाते हुए धृतराष्ट्र के महल में गये। वहाँ उन्होंने मुनि श्रेष्ठ व्यास जी को पहले से ही उपस्थित देखा। व्यास तथा राजा धृतराष्ट्र दोनों के चरण दबाकर जनार्दन श्रीकृष्ण ने बिना किसी व्यग्रता के गांधारी देवी को प्रणाम किया। राजेन्द्र! तदनन्तर यादवश्रेष्ठ श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र का हाथ अपने हाथ में लेकर उन्मुक्त स्वर से फूट-फूटकर रोने लगे। उन्होंने दो घड़ी तक शोक के आंसू बहाकर शुद्ध जल से नेत्र धोये और विधिपूर्वक आचमन किया।[2]

कृष्ण का धृतराष्ट्र को आश्वासन देना

तत्पश्चात् शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र से प्रस्तुत वचन कहा- भारत! आप वृद्ध पुरुष हैं; अतः काल के द्वारा जो कुछ भी संघटित हुआ और हो रहा है, वह कुछ भी आपसे अज्ञात नहीं है। प्रभो! आपको सब कुछ अच्छी तरह विदित है।[2] भारत! समस्त पाण्डव सदा से ही आपकी इच्छा के अनुसार बर्ताव करने वाले हैं। उन्होंने बहुत प्रयत्न किया कि किसी तरह हमारे कुल का तथा क्षत्रिय समूह का विनाश न हो। धर्मवत्सल युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ नियत समय की प्रतीक्षा करते हुए सारा कष्ट चुपचाप सहन किया था। पाण्डव शुद्ध भाव से आपके पास आये थे तो भी उन्‍हें कपटपूर्वक जुएं में हराकर वनवास दिया गया। उन्होंने नाना प्रकार के वेशों में अपने को छिपाकर अज्ञातवास का कष्ट भोगा। इसके सिवा और भी बहुत-से क्लेश उन्हें असमर्थ पुरुषों के समान सदा सहन करने पड़े हैं। जब युद्ध का अवसर उपस्थित हुआ, उस समय मैंने स्वयं आकर शान्ति स्थापित करने के लिये सब लोगों के सामने आपसे केवल पांच गांव मांगे थे। परंतु काल से प्रेरित हो आपने लोभवश वे पांच गांव भी नहीं दिये। नरेश्वर! आपके अपराध से समस्त क्षत्रियों का विनाश हो गया। भीष्म, सोमदत्त, बाह्लीक, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा और बुद्धिमान विदुर जी ने भी सदा आपसे शान्ति के लिये याचना की थी; परंतु आपने यह कार्य नहीं किया।

भारत! जिनका चित्त काल के प्रभाव से दूषित हो जाता है, वे सब लोग मोह में पड़ जाते हैं। जैसे कि पहले युद्ध की तैयारी के समय आपकी भी बुद्धि मोहित हो गयी थी। इसे कालयोग के सिवा और क्या कहा जा सकता है? भाग्य ही सबसे बड़ा आश्रय है। महाप्राज्ञ! आप पाण्डवों पर दोषारोपण न कीजियेगा। परंतप! धर्म, न्याय और स्नेह की दृष्टि से महात्मा पाण्डवों का इसमें थोड़ा-सा भी अपराध नहीं है। यह सब अपने ही अपराधों का फल है, ऐसा जानकर आपको पाण्डवों के प्रति दोषदृष्टि नहीं करनी चाहिए। अब तो आपका कुल और वंश पाण्डवों से ही चलने वाला है। नाथ! आपको और गांधारी देवी को पिण्डा-पानी तथा पुत्र से प्राप्त होने वाला सारा फल पाण्डवों से ही मिलने वाला है। उन्हीं पर यह सब कुछ अवलम्बित है। कुरुप्रवर! पुरुषसिंह! आप और यशस्वी गांधारी देवी कभी पाण्डवों की बुराई करने की बात न सोचें। भरतश्रेष्ठ! इन सब बातों तथा अपने अपराधों का चिन्तन करके आप पाण्डवों के प्रति कल्याण-भावना रखते हुए उनकी रक्षा करें। आपको नमस्कार है। महाबाहो! भरतवंश के सिंह! आप जानते हैं कि धर्मराज युधिष्ठिर के मन में आपके प्रति कितनी भक्ति और कितना स्वाभाविक स्नेह है। अपने अपराधी शत्रुओं का ही यह संहार करके वे दिन-रात शोक की आग में जलते हैं, कभी चैन नहीं पाते हैं। पुरुषसिंह! आप और यशस्विनी गांधारी देवी के लिये निरन्तर शोक करते हुए नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर को शान्ति नहीं मिल रही है। आप पुत्र शोक से सर्वथा संतप्त है। आपकी बुद्धि और इन्द्रियां शोक से व्याकुल हैं। ऐसी दशा में वे अत्यन्त लज्जित होने के कारण आपके सामने नहीं आ रहे हैं।[3]

श्रीकृष्ण का गांधारी को आश्वासन देना

महाराज! यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण राजा धृतराष्ट्र से ऐसा कहकर शोक से दुर्बल हुई गांधारी देवी से यह उत्तम वचन बोले[4]- सुबलनन्दिनि! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो और समझो। शुभे! इस संसार में तुम्हारी जैसी तपोबल सम्पन्न स्त्री दूसरी कोई नहीं है। रानी! तुम्हें याद होगा, उस दिन सभा में मेरे सामने ही तुमने दोनों पक्षों का हित करने वाला धर्म और अर्थयुक्त वचन कहा था, किंतु कल्याणि! तुम्हारे पुत्रों ने उसे नहीं माना। तुमने विजय की अभिलाषा रखने वाले दुर्योधन को सम्बोधित करके उससे बड़ी रूखाई के साथ कहा था- 'ओ मूढ़! मेरी बात सुन ले, जहाँ धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है।' कल्याणकारी राजकुमारी! तुम्हारी वही बात आज सत्य हुई है, ऐसा समझकर तुम मन में शोक न करो। पाण्डवों के विनाश का विचार तुम्हारे मन में कभी नहीं आना चाहिए। महाभागे! तुम अपनी तपस्या के बल से क्रोधभरी दृष्टि द्वारा चराचर प्राणियोंसहित समूची पृथ्वी को भस्म कर डालने की शक्ति रखती हो। भगवान श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर गांधारी ने कहा- महाबाहु केशव! तुम जैसा कहते हो, वह बिल्कुल ठीक है। अब तक मेरे मन में बड़ी व्यथाएं थीं और उन व्यथाओं की आग से दग्ध होने के कारण मेरी बुद्धि विचलित हो गयी थी (अतः मैं पाण्डवों के अनिष्ट की बात सोचने लगी थी); परंतु जनार्दन! इस समय तुम्हारी बात सुनकर मेरी बुद्धि स्थिर हो गयी है- क्रोध का आवेश उतर गया है। मनुष्यों में श्रेष्ठ केशव! ये राजा अन्धे और बूढ़े हैं तथा इनके सभी पुत्र मारे गये हैं। अब समस्त वीर पाण्डवों के साथ तुम्हीं इनके आश्रयदाता हो। इतनी बात कहकर पुत्र शोक से संतप्त हुई गांधारी देवी अपने मुख को आंचल से ढककर फूट-फूटकर रोने लगीं। तब महाबाहु भगवान केशव ने शोक से दुर्बल हुई गांधारी को कितने ही कारण बताकर युक्तियुक्त वचनों द्वारा आश्वासन दिया-धीरज बंधाया।[5]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 63 श्लोक 20-40
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 63 श्लोक 41-58
  4. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 63 श्लोक 41-58
  5. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 63 श्लोक 59-78

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