कूबा कुम्हार
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पूरा नाम | कूबा कुम्हार |
पति/पत्नी | पुरी |
कर्म भूमि | भारत |
प्रसिद्धि | भक्त |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | कूबा जी परम भगवद्भक्त थे। घर पर आये हुए अतिथियों की सेवा और भगवान का भजन, बस इन्हीं दो कामों में कूबा जी की रुचि थी। |
कूबा जी परम भगवद्भक्त थे। ये अपनी पत्नी ‘पुरी’ के साथ महीने भर में मिट्टी के तीस बर्तन बना लेते और उन्हीं को बेचकर पति-पत्नी जीवन निर्वाह करते थे। धन का लोभ था नहीं, भगवान के भजन में अधिक-से-अधिक समय लगना चाहिये, इस विचार से कूबा जी अधिक बर्तन नहीं बनाते थे। घर पर आये हुए अतिथियों की सेवा और भगवान का भजन, बस इन्हीं दो कामों में उनकी रुचि थी।
अभय सरन हरि के चरन की जिन लई सम्हाल।
तिनतें हारयौ सहज ही अति कराल हू काल।।
परिचय
राजपूताने के किसी गाँव में कूबा नाम के कुम्हार जाति के एक भगवद्भक्त रहते थे। ये अपनी पत्नी ‘पुरी’ के साथ महीने भर में मिट्टी के तीस बर्तन बना लेते और उन्हीं को बेचकर पति-पत्नी जीवन निर्वाह करते थे। धन का लोभ था नहीं, भगवान के भजन में अधिक-से-अधिक समय लगना चाहिये, इस विचार से कूबा जी अधिक बर्तन नहीं बनाते थे। घर पर आये हुए अतिथियों की सेवा और भगवान का भजन, बस इन्हीं दो कामों में उनकी रुचि थी।[1]
धन की गतियाँ
धन का सदुपयोग तो कोई बिरले पुण्यात्मा ही कर पाते हैं। धन की तीन गतियाँ हैं- दान, भोग और नाश। जो न दान करता है और न सुख-भोग में धन लगाता, उसका धन नष्ट हो जाता है। चोर-लुटेरे न भी ले जायँ, मुकदमे या रोगियों की चिकित्सा में न भी नष्ट हो, तो भी कंजूस का धन उसकी सन्तान को बुरे मार्ग में ले जाता है और वे उसे नष्ट कर डालते हैं। भोग में धन लुटाने से पाप का संचय होता है। अत: धन का एक ही सदुपयोग है- दान। घर आये अतिथि का सत्कार।
चमत्कारिक घटनाएँ
एक बार कूबा जी के ग्राम में दो सौ साधु पधारे। साधु भूखे थे। गाँव में सेठ-साहूकार थे, किंतु किसी ने साधुओं का सत्कार नहीं किया। सब ने कूबाजी का नाम बता दिया। साधु कूबा जी के घर पहुँचे। घर पर साधुओं की इतनी बड़ी मण्डली देखकर कूबा जी को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने नम्रतापूर्वक सबको दण्डवत प्रणाम किया। बैठने को आसन दिया। परंतु इतने साधुओं को भोजन कैसे दिया जाय? घर में तो एक छटाँक अन्न नहीं था। एक महाजन के पास कूबा जी उधार माँगने गये। महाजन इनकी निर्धनता जानता था और यह भी जानता था कि ये टेक के सच्चे हैं। उसने यह कहा- "मुझे एक कुआँ खुदवाना है। तुम यदि दूसरे मजदूरों की सहायता के बिना ही कुआँ खोद देने का वचन दो तो मैं पूरी सामग्री देता हूँ।" कूबा जी ने शर्त स्वीकार कर ली। महाजन से आटा, दाल, घी आदि ले आये। साधु-मण्डली ने भोजन किया और कूबा जी को आशीर्वाद देकर विदा हो गये।
साधुओं के जाते ही कूबा जी अपने वचन के अनुसार महाजन के बताये स्थान पर कुआँ खोदने में लग गये। वे कुआँ खोदते और उनकी पतिव्रता स्त्री पूरी मिट्टी फेंकती। दोनों ही बराबर हरिनाम-कीर्तन किया करते। बहुत दिनों तक इसी प्रकार लगे रहने से कुएँ में जल निकल आया। परंतु नीचे बालू थी। ऊपर की मिट्टी को सहारा नहीं था। कुआँ बैठ गया। ‘पुरी’ मिट्टी फेंकने दूर चली गयी थी। कूबा जी नीचे कुएँ में थे। वे भीतर ही रह गये। बेचारी पुरी हाहाकार करने लगी।
गाँव के लोग समाचार पाकर एकत्र हो गये। सब ने यह सोचा कि मिट्टी एक दिन में तो निकल नहीं सकती। कूबा जी यदि दबकर न भी मरे होंगे तो श्वास रुकने से मर जायँगे। पुरी को वे समझा-बुझाकर घर लौटा लाये। कुछ लोगों ने दयावश उसके पास खाने-पीने का सामान भी पहुँचा दिया। बेचारी स्त्री कोई उपाय न देखकर लाचार घर चली आयी। गाँव के लोग इस दुर्घटना को कुछ दिनों में भूल गये। वर्षा होने पर कुएँ के स्थान पर जो थोड़ा गड्ढा था, वह भी मिट्टी भरने से बराबर हो गया।
एक बार कुछ यात्री उधर से जा रहे थे। रात्रि में उन्होंने उस कुएँ वाले स्थान पर ही डेरा डाला। उन्हें भूमि के भीतर से करताल, मृदंग आदि के साथ कीर्तन की ध्वनि सुनायी पड़ी। उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। रातभर वे उस ध्वनि को सुनते रहे। सबेरा होने पर उन्होंने गाँव वालों को रात की घटना बतायी। अब जो जाता, जमीन में कान लगाने पर उसी को वह शब्द सुनायी पड़ता। वहाँ दूर-दूर से लोग आने लगे। समाचार पाकर स्वयं राजा अपने मंत्रियों के साथ आये। भजन की ध्वनि सुनकर और गाँव वालों से पूरा इतिहास जानकर उन्होंने धीरे-धीरे मिट्टी हटवाना प्रारम्भ किया। बहुत-से लोग लग गये, कुछ घंटों में कुआँ साफ हो गया। लोगों ने देखा कि नीचे निर्मल जल की धारा बह रही है। एक ओर आसन पर शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान विराजमान हैं और उनके सम्मुख हाथ में करताल लिये कूबा जी कीर्तन करते, नेत्रों से अश्रुधारा बहाते तन-मन की सुधि भूले नाच रहे हैं। राजा ने यह दिव्य दृश्य देखकर अपना जीवन कृतार्थ माना।
अचानक वह भगवान की मूर्ति अदृश्य हो गयी। राजा ने कूबा जी को कुएँ से बाहर निकलवाया। सब ने उन महाभागवत की चर-धूलि मस्तक पर चढ़ायी। कूबा जी घर आये। पत्नी ने अपने भगवद्भक्त पति को पाकर परमानन्द लाभ किया। दूर-दूर से अब लोग कूबा जी के दर्शन करने और उनके उपदेश से लाभ उठाने आने लगे। राजा नियमपूर्वक प्रतिदिन उनके दर्शनार्थ आते थे।
- एक बार अकाल के समय कूबा जी की कृपा से लोगों को बहुत-सा अन्न प्राप्त हुआ था। उनके सत्संग से अनेक स्त्री-पुरुष भगवान के भजन में लगकर संसार-सागर से पार हो गये।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 681
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