विरह-पदावली -सूरदास
राग सोरठ (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) क्या (हमारे) दिन ऐसे ही (श्यामसुन्दर के बिना ही) बीतते जायँगे ? सखी! सुन, क्या मदनगोपाल गोपकुमारों के साथ (फिर कभी) मेरे आँगन में नहीं आयेंगे ? कभी वे यमुना के पुलिन पर जाते और अनेक प्रकार की क्रीड़ा करते हुए खेलते थे, उन दिनों की स्मृति (अब) भी होती है, जब वे गायों के साथ (संध्या को वन से) हाथ में पुष्प लिये (उसे) उछालते आते थे। चलते समय उन्होंने जिस मंद मुस्कराहट के साथ व्रज में लौटने की बात कही थी, उसी का स्मरण करके हमने जीवन धारण कर रखा है, वह वंशी का शब्द सुनाने वाला शुभ दिन कभी तो होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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