कर्मठीबाई

कर्मठीबाई
कर्मठीबाई
पूरा नाम कर्मठीबाई
जन्म भूमि बागर ग्राम (राजस्‍थान)
अभिभावक पिता- श्रीपुरुषोत्तम जी
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र मथुरा
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि साध्वी
नागरिकता भारतीय
विशेष कर्मठीबाई के वास्तविक नाम की जानकारी नहीं है, उनके कठोर तप के कारण ही उनका नाम 'कर्मठी' पड़ गया था।
अन्य जानकारी कर्मठीबाई के सम्‍पूर्ण जीवन में देखा गया कि उनमें अपने व्रत की दृढ़ता, साधुसेवा और गुरुसेवा की निष्‍ठा के साथ प्रभु-अनुराग, क्षमा, दया, कोमलता, सरलता, उदारता, नि:स्‍पृहता और पवित्रता कूट-कूटकर भरी थी।

कर्मठीबाई का यथार्थ नाम क्‍या था, कुछ पता नहीं; उनके घोर तप ने ही उनका नाम कर्मठी रख दिया था। कर्मठी बागर ग्राम (राजस्‍थान) के कांथड्या ब्राह्मण श्रीपुरुषोत्तम जी की इकलौती दुलारी थीं। दुर्भाग्‍यवश ये विवाहोपरान्‍त ही विधवा हो गयीं, इससे सनातन-धर्म के रीत्‍यनुसार जप, तप, व्रत और संयमों का पालन करते हुए कर्मठी जी ने अपना वैधव्‍य-जीवन तपोमय बना दिया। कर्मठी जी का यह तपस्‍या-क्रम लगातार बारह वर्षों तक एक-सा चलता रहा था।[1]

परिचय

कर्मठीबाई के बारे प्राय: बहुत लोग ऐसा मानते हैं कि कर्मठी और करमैती एक ही बाई के दो नाम हैं; किंतु बात ऐसी नहीं है। श्रीनाभा जी ने जिन करमैती बाई का चरित्र लिखा है, वे काँथड्या कुल में उत्‍पन्‍न पं. परशुराम राजपुरोहित की इकलौती कन्‍या थीं। पं. परशुराम सेखावाटी के राजा सेखावत के राज-पण्डित और खंडेला ग्राम के निवासी थे। भक्तिमती करमैतीबाई का विवाह हो गया था और वे द्विरागमन के समय आधी रात को घर से श्रीवन भाग आयी थीं। किंतु कर्मठजी का परिचय देते हुए अनन्‍यमाल के रचयिता श्रीभागवतमुदित जी ने लिखा है-

अब सुनि एक कर्मठी बाई। ताकी कथा परम सुखदाई।।
बिप्र एक पुरुषोत्तम नाम। काँथरिया बागर बिश्राम।।
कन्‍या एक तासु के भई। ब्‍याहत ही बिधवा हो गई।।
तप ब्रत सुचि संजम में रहै। तातें नाम कर्मठी कहै।।

विषम परिस्थितियाँ

कृपामय श्रीकृष्‍ण की कृपा कब किस पर कैसे होगी, कोई कह नहीं सकता। कृपा के रूप को न जान-समझकर भले ही कोई अब उस विधान को अमंगलमय कहने लगे, किंतु इससे क्‍या। उस प्रभु-विधान का जो परिणाम होता है, उसका अनुभव करके प्रभु-प्रेमी भक्त का हृदय आनन्‍द से नाच उठता है। कर्मठी के प्रारम्भिक जीवन में भी एक ऐसी घटना घटी। काल का भयानक चक्र चला और उनका पितृ-कुल एवं पति-कुल पूर्णरूप से समाप्‍त हो गया। दोनों पक्षों में कोई भी कर्मठी का अपना कहा जाने वाला न रह गया। जगत की दृष्टि से वे एकदम असहाय हो गयीं। एक तो परम सुन्‍दरी युवती और दूसरे विधवा।

श्रीकृष्‍ण-परिचर्या

कर्मठी ने एक वयोवृद्ध संत श्रीहरिदास का चरणाश्रय लिया, फिर कुछ दिनों पीछे वे सब ओर से विरक्त होकर श्रीवन आ गयीं। श्रीवन आने पर कर्मठी ने महाप्रभु श्रीहित हरिवंशचन्‍द्र जी से वैष्‍णवी-दीक्षा ली तथा उनके अनुगत होकर भजन-ध्‍यान, नाम-जप एवं सेवा-पूजा करने लगीं। उनका सारा समय श्रीकृष्‍ण-परिचर्या और नाम-कीर्तन में ही व्‍यतीत होता। सत्‍संग और संतों से इन्‍हें अत्‍यधिक प्‍यार था। कभी असद आलाप न करतीं और समय को व्‍यर्थ न जाने देतीं। कर्मठी जी को अपने इष्‍टदेव श्रीराधावल्‍लभलाल जी के उत्‍सवों में बड़ा आनन्‍द मिलता, अत: भिक्षा माँगकर और सूत कातकर भी पैसे कमातीं और उस द्रव्‍य को श्रीठाकुर जी के उत्‍सवों में खर्च करके अपार सुख का अनुभव करती थीं। भक्ति और प्रेम के इन आचरणों से, प्रेमी संतों के संग से और श्रीवन के निवास से कर्मठी जी की घोर कर्म-निष्‍ठा शान्‍त हो गयी। उनके चित्त की वासनाएँ क्षीण हो गयीं और वे कर्तृत्‍वाभिमान से रहित होकर भक्ति के किसी गम्‍भीर समुद्र में डूब गयीं-सीधे शब्‍दों में गुरु-कृपा से वे एक सिद्ध संत हो गयीं।

महत्त्वपूर्ण घटना

कर्मठी जी के जीवन में एक घटना बड़े विषमरूप से उपस्थित हुई, जिसने कर्मठी जी के जीवन को प्रकाश में ला दिया और उसके सहारे अनेकों साधकों ने दिव्‍य उपदेश पाये। यह सब जानते हैं कि स्‍त्री-जाति अबला है और उसके ‘प्रिय शत्रु’ हैं- रूप-लावण्‍य एवं नारीत्‍व। यदि अबला असहाय, एकाकी हो और रूप-लावण्‍य उसके साथ हो तो लोलुप कामियों का समुदाय उसे सच्‍चरित्र देखने में दु:ख पाता है; वह उसके धर्म, रूप, यौवन और फिर सर्वस्‍व का हरण करना चाहता है, केवल अपनी नीचतापूर्ण क्षुद्र वासनाओं की पूर्ति के लिये। कर्मठी रूप-लावण्‍यमयी अबला युवती थी; किंतु भगवद्बल ने उन्‍हें कैसी सबला कर दिखाया, यह नीचे लिखी घटना से प्रकट होगा-

जब सम्राट अकबर के भानजे अजीजबेग को मथुरा ज़िले की हाकिमी मिली, तब उसने अपने भाई हसनबेग़ को मथुरा का शासन-प्रबन्‍ध करने के लिये भेजा। मथुरा में कुछ दिन रहने के बाद हसनबेग़ को श्रीवन देखने की सूझी और वह यहाँ की अलौकिक छटा देखने के लिये श्रीवन आया भी। जिस समय वह श्रीवन का निरीक्षण करता हुआ यमुना का तट पर विचरण कर रहा था, उस समय उसने कर्मठी को स्‍नान करते हुए देखा। भींगे वस्‍त्रों से लिपटी अनुपम रूप-लावण्‍यमयी नव-युवती को देखकर हसनबेग़ का चित्त अपने वश में न रह सका। उसने पता लगाया कि यह रूप-सौंन्‍दर्य की देवी कौन है। पूर्ण परिचय प्राप्‍त करके वह खुश हो गया; क्‍योंकि वह अच्‍छी तरह जानता था कि एक असहाय अबला को अपने माया-जाल में फँसा लेना कुछ कठिन नहीं है। मथुरा आकर हसनबेग़ ने एक जाल रचना चाहा। उसने कुलटाओं से मिलकर सलाह की। उनमें से दो कुलटा दूतियाँ इस नीच कार्य के लिये तैयार हुईं। उन दुष्‍टाओं ने कहा- ‘कर्मठी को और किसी ढंग से तो फँसाया जा नहीं सकता, वह हमारी बातों पर विश्‍वास ही क्‍यों करेगी। हाँ, यदि हम भक्तों का-सा वेष बना लें और उसके पास जायँ तो वह हमारा विश्‍वास और आदर करेगी, हमारी बात मानेगी भी’।

यह सलाह हसनबेग़ को भी जँची। दूसरे दिन प्रात:काल वे दोनों भक्तवेष में सजकर वृन्दावन गयीं और यमुना के घाट पर ही कर्मठी से मिलीं। उनकी भक्तिपूर्ण बातों को सुनकर कर्मठी यह समझ नही सकीं कि ये विष के लड्डू केवल ऊपर से ही बूरे से लपेटे गये हैं। कर्मठी ने उनका आदर किया और उन्‍हें साथ-साथ अपनी कुटिया तक लिवा लायीं। बहुत देर तक भगवच्‍चर्चा होती रही। अब तो वे प्रतिदिन इसी प्रकार प्रात:काल आतीं और कर्मठी जी की कुटिया में बैठकर घंटों सत्‍संग होता। धीरे-धीरे कर्मठी जी का उनसे स्‍नेह-सा हो गया। इस प्रकार कितने ही दिन बीते। एक दिन कुछ विलम्‍ब से आयीं। उनके आने पर कर्मठी जी ने सहज ही पूछ लिया- "बहनो ! आज इतना विलम्‍ब कैसे हो गया?" उन्‍होंने बनावटी प्रसन्‍नता और उल्‍लास मिश्रित संकोच के साथ कहा- "माताजी! क्‍या कहें, हमने चाहा तो बहुत कि आपकी सेवा में शीघ्र आ जायँ; किंतु न आस सकीं। क्‍योंकि हमारे घर एक बहुत बड़े संत पधारे हैं, उन्‍हीं की सेवा में विलम्‍ब हो गया।"

बहुत बड़े संत पधारे हैं, सुनकर कर्मठी जी, जिनके जीवनाधार संत ही थे, प्रसन्‍नता से भर गयीं और बोलीं- "बहनो ! क्‍या मुझे भी उन महापुरुष के दर्शन हो सकेंगे?" उन वेषधारी भक्ताओं ने कहा- "अवश्‍य-अवश्‍य; जब कल आप यमुना-स्‍नान करके लौटें, तब हमारी कुटिया जो अमुक स्‍थान पर है, वहीं से होती हुई आयें या हम ही आपको यमुना पर मिलें।" कुलटाओं ने समझा हमारी दाल गल गयी। वे शीघ्र मथुरा आयीं और सारी बातें सुना-समझाकर हसनबेग़ को चुपके से वृन्‍दावन ले आयीं। उन्‍होंने एक कुटिया में उसे ला बैठाया और उनमें से एक दूती दूसरे दिन प्रात:काल यमुना पर कर्मठी जी से जा मिली तथा उन्‍हें साथ लेकर अपनी कुटिया पर संत-दर्शन के लिये लिवा लायी। कर्मठी को कमरे के भीतर पहुँचाकर बोली- ‘अरे ! मालूम होता है वह संत कहीं बाहर चले गये हैं। अच्‍छा, मैं उन्‍हें शीघ्र बुलाये लाती हूँ; तुम यहीं ठहरो।' कहकर वह कमरे के बाहर चली गयी। चलते-चलते वह छिपे हुए हसनबेग़ को कर्मठी के आने का संकेत कर गयी। कमरे के बाहर निकलकर उसने जल्‍दी से किवाड़ लगाकर साँकल चढ़ा दी।

कर्मठी अभी तक कुछ समझ न पायी थीं; किंतु जब उन्‍होंने हसनबेग़ को अपनी ओर आते देखा, तब उन दुष्‍टाओं की सारी चाल समझ गयीं। वे घबराकर मन-ही-मन प्रभु से अपनी लाज बचाने की प्रार्थना करने लगीं। तब तक हसनबेग़ कर्मठी के समीप आकर बोला- ‘सुन्‍दरि ! तुम जिस साधु का दर्शन करने आयी हो, वह साधु मैं ही हूँ।' यों कहकर वह कर्मठी को अपने आलिंगन में बाँधने के लिये लपका। कर्मठी डर के मारे चिल्‍ला उठीं और भागकर कमरे के एक कोने में जा चिपटीं तथा व्‍याकुल नेत्रों से इधर-उधर देखने लगीं। उनकी घबराहट देखकर हसनबेग़ अपनी विजयपर एक बार ठहाका मारकर हँसा और कहने लगा- ‘यह रूप, यह यौवन, यह जवानी क्‍या इसलिये है कि इसे यमुना के ठण्‍डे पानी में गलाया जाय, तपस्‍या की आग में तपाया जाय? परी! मैं तुमसे प्‍यार करता हूँ। आओ, मेरी गोद में आओ और सदा के लिये इस राज्‍य की और मेरे हृदय की रानी बन जाओ।' हसनबेग़ के ये शब्‍द कर्मठी को बाण-से लगे। वे उसका तिरस्‍कार करती हुई रोषपूर्वक कहने लगीं- ‘नीच ! नराधम ! पापी ! किसी अबला की लाज और उसका धर्म लूटते तुझे लज्‍जा नहीं आती? मैं तो तुझे इसका अच्‍छा मजा चखा सकती हूँ, किंतु...।'

इसके आगे वे और कुछ न कह सकीं। उन्‍हें अपने सर्व-समर्थ गुरुदेव के द्वारा कहे गये ‘सब सौं हित’ वाक्‍य का स्‍मरण हो आया। वे रोने लगीं। इधर तीव्र काम-वासना से विकल, मदान्‍ध हसनबेग़ कर्मठी की ओर बढ़ता चला आया। उसने कर्मठी का स्‍पर्श करना चाहा; किंतु देखता क्‍या है कि यह सुन्‍दरी नहीं, भयानक सिंह है और मुझे खाना चाहता है। बड़ी-बड़ी लाल-लाल क्रोधित आँखों से मेरी ओर घूर रहा है और गुस्‍से से भरा गुर्रा रहा है। सिंह को देखते ही उसकी काम-वासना रफूचक्‍कर हो गयी, उसके प्राण काँप गये, वह भागकर अपने प्राण बचाने की कोशिश करने लगा। पर जाता कहाँ? बाहर से तो साँकल बंद थी। वह घबराकर बार-बार किवाड़ों से अपने हाथ पटकता और चिल्‍ला-चिल्‍लाकर किवाड़ खोलने की पुकार करता। उसका सारा शरीर मारे भय के काँप रहा था। उसने लौटकर देखा तो सिंह उसी की ओर बढ़ा आ रहा था। क्रोधित सिंह को अपनी ओर आते देखकर भय के मारे मिर्जा हसनबेग़ का पाजामा बिगड़ गया और वह मूर्च्छित होकर दरवाजे के पास गिर पड़ा। जाने कितनी देर तक वह बेहोश पड़ा रहा, पीछे उसकी साधिका दूतियों ने किवाड़ खोले और उसे सचेत किया, तब वहाँ न तो कर्मठी थीं और न सिंह ही।

इस घटना से हसनबेग़ को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। कर्मठी से सिंह हो जाने और फिर लोप हो जाने की बात तीनों को आश्‍चर्य में डाल रही थी। अत: रहस्‍य का पता लगाने के लिये हसनबेग़ ने उन दोनों कुलटाओं को फिर कर्मठी के पास भेजा। उन्‍होंने जाकर देखा कि कर्मठी जी अपने ठाकुर जी की सेवा-पूजा कर रही हैं। उन्‍होंने कर्मठी जी को प्रणाम किया, पर कर्मठी जी ने घटना के विषय में और न किसी अन्‍य विषय पर उनसे बात की। उन्‍होंने देखा कर्मठी जी प्रसन्‍न हैं। उनके मुख पर क्रोध का कोई चिह्न ही नहीं है। लौटकर उन्‍होंने सब समाचार हसनबेग़ को सुना दिया। हसनबेग़ पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा और वह बहुत-सा द्रव्‍य लेकर कर्मठी जी के पास गया; किंतु कर्मठी जी ने उसमें से कुछ भी स्‍वीकार न करके सब धन को साधु-संतों की सेवा में लगा देने की आज्ञा दी। हसनबेग़ ने ऐसा ही किया।

प्रभु अनुराग तथा क्षमाशील

इस प्रकार श्रीकर्मठीबाई के सम्‍पूर्ण जीवन में देखा गया कि उनमें अपने व्रत की दृढ़ता, साधुसेवा और गुरुसेवा की निष्‍ठा के साथ प्रभु-अनुराग, क्षमा, दया, कोमलता, सरलता, उदारता, नि:स्‍पृहता और पवित्रता कूट-कूटकर भरी थी। श्रीकर्मठी जी के पुनीत चरणों का स्‍मरण करते हुए चाचा श्रीहित वृन्‍दावनदास जी ने लिखा है-

धन्‍य पिता धनि मात धन्‍य मति अबला जन की।
तजी बिषै संसार बिहार निहारन मन की।।
हसनबेग़ इक जमन देखि दुष्‍टता बिचारी।
करि नाहर कौ रूप त्रास दै नाथ उबारी।।
श्रीहरिबंस प्रसाद तें बन फिरति भरी अनुराग की।
हरि भजन परायन कर्मठी फबी निकाई भाग की।।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • [लेखक - श्रीचश्‍मा वाले बाबा]
  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 723

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