विरह-पदावली -सूरदास
(290) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) ऐसे समय में यदि श्यामसुन्दर आ जायँ तो उनका यह मनोहर रूप बार-बार देखकर हमारे नेत्र बहुत सुखी हों। (पहले के समान) वैसी ही काली घटा है, बादल गर्जना कर रहे हैं और बीच-बीच में बगुलों की पंक्ति दीख रही है। हम (भी) उसी भाँति बारम्बार (उनके) मयूरों का कोलाहल सुनकर और हर्षित होकर झूलों पर (झूलती हुई) गावें। वैसी ही बिजली चमक रही है और वे (वैसे ही) वंशी में मलार राग गायें, कभी हमारे साथ भली प्रकार मिलकर क्रीड़ा करें तथा कभी हमें कुंजों में बुलायें। हमारे प्राण उनका वियोग होने से शरीर में रहते नहीं दीखते, उन्हें आकर वे जीवित करें। इस बार (हम उन) अपने स्वामी को जाते जानकर सब (-की-सब) पहले ही उठकर (उनके साथ) दौड़ पड़ेंगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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