विरह-पदावली -सूरदास
(228) (एक गोपी कह रही है- सखी!) ऐसे बादल उस दिन (भी) आये थे, जिस दिन श्यामसुन्दर ने गोवर्धन पर्वत उठाया था। बार-बार गर्जना करते हुए मेघ (इस भाँति) वर्षा करने लगे हैं, मानो इन्द्र ने अपनी पहली शत्रुता याद कर ली है। सखी! सभी संयोग एकत्र हो गये हैं। ये हठ करके व्रज को उजाड़ देना चाहते हैं। व्रज का रक्षक तो दूर चला गया, अब (बता) सात दिन तक (उसकी) कौन रक्षा करेगा। जब श्रीबलराम इस व्रज में थे, तब किसी देवता ने ऐसा संकट नहीं डाला था। अब यह (व्रज की) भूमि भयानक लगती है, जिससे ज्ञात होता है कि ब्रह्मा ने फिर से कंस को जन्म दे दिया। अब उस प्रकार हमारी सुधि कौन लेगा! इस व्रज में अब हमारा कोई नहीं है। सूरदास जी कहते हैं कि पिछले प्रेम का स्मरण करके वियोगिनी गोपियाँ अत्यन्त व्याकुल हो रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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