ऐसे प्रभु अनाथ के स्‍वामी -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग धनाश्री




 
ऐसे प्रभु अनाथ के स्‍वामी।
दीनदयाल, प्रेम-परिपूरन, सब-घट-अंतरजामी।
करत बिबस्‍त्र द्रुपद-तनया कौं, सरन सब्‍द कहि आयौ।
पूजि अनंत कोटि बसननि हरि, अरि कौ गर्व गँवायौ।
सुत-हित बिप्र, कीर-हित गनिका, नाम लेत प्रभु पायौ।
छिनक भजन, संगति-प्रताप तै, गज अरु ग्राह छुड़ायौ।
नर-तन, सिंह-बदन, बपु कीन्‍हौ, जन लगि भेष बनायौ।
जिन जन दुखी जानि भय तै अति, रिपु हति, सुख उपजायौ।
तुम्‍हरी कृपा गुपाल गुसाई, किहिं, किहिं स्रम न गँवायौ।
सूरजदास अंध, अपराधी, सो काहैं बिसरायौ।।190।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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