ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 139 में ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करने का वर्णन हुआ है।[1]

ऋषियों द्वारा श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना

तदनन्तर शत्रुसूदन श्रीकृष्ण ने उस पर्वत को दग्ध हुआ देखकर अपनी सौम्य दृष्टि डाली और उसे पुनः प्रकृतावस्था में पहुँचा दिया- पहले की भाँति हरा-भरा कर दिया। वह पर्वत फिर पहले की ही भाँति खिली हुई लताओं और वृक्षों से सुशोभित होने लगा। वहाँ पक्षी चहचहाने लगे। वहाँ हिंसक पशु और सर्प आदि जीव-जन्तु जी उठे। सिद्धों और चारणों के समुदाय प्रसन्न होकर उस पर्वत की शोभा बढ़ाने लगे। वह स्थान पुनः मतवाले हाथियों और नाना प्रकार के पक्षियों से सम्पन्न हो गया।। इस अद्भुत और अचिन्त्य घटना को देखकर ऋषियों का समुदाय विसिमत और रोमांचित हो उठा। उन सबके नेत्रों में आनन्द के आँसू भर आये। वक्ताओं में श्रेष्ठ नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने उन ऋषियों को विस्मयविमुग्ध हुआ देख विनय और स्नेह से युक्त मधुर वाणी में पूछा- ‘महर्षियों! ऋषि समुदाय तो आसक्ति और ममता से रहित है! सबको शास्त्रों का ज्ञान है, फिर भी आप लोगों को आश्चर्य क्यों हो रहा है? ‘तपोधन ऋषियो! आप सब लोग सबके द्वारा प्रशंसित हैं, अतः मेरे इस संशय को निश्चित एवं यथार्थ- रूप से बताने की कृपा करें।’

ऋषियों का कथन

ऋषियों ने कहा- भगवन! आप ही संसार को बनाते और आप ही पुनः उसका संहार करते हैं। आप ही सर्दी, आप ही गर्मी और आप ही वर्षा करते हैं। इस पृथ्वी पर जो भी चराचर प्राणी हैं, उनके पिता-माता, प्रभु और उत्पत्तिस्थान भी आप ही हैं। मधुसूदन! आपके मुख से अग्नि का प्रादुर्भाव हमारे लिये इस प्रकार विस्मयजनक हुआ है। हम संशय में पड़ गये हैं। कल्याणमय श्रीकृष्ण! आप ही इसका कारण बताकर हमारे संदेह और विस्मय का निवारण कर सकते हैं। शत्रुसूदन हरे! उसे सुनकर हम भी निर्भय हो जायँगे और हमने जो आश्चर्य की बात देखी या सुनी है, उसका हम आपके सामने वर्णन करेंगे। श्रीकृष्ण बोले- मुनिवरो! मेरे मुख से यह मेरा वैष्णव तेज प्रकट हुआ था, जिसने प्रलय काल की अग्नि के समान रूप धारण करके इस पर्वत को दग्ध कर डाला था।। उसी तेज से आप-जैसे तपस्या के धनी, देवोपम शक्तिशाली, क्रोधविजयी और जितेन्द्रिय ऋषि भी पीड़ित और व्यथित हो गये थे। मैं व्रतचर्या में लगा हुआ था, तपस्वी जनों के उस व्रत का सेवन करने से मेरा तेज ही अग्निरूप में प्रकट हुआ था। अतः आप लोग उससे व्यथित न हों। मैं तपस्या द्वारा अपने ही समान वीर्यवान पुत्र पाने की इच्छा से व्रत करने के लिये इस मंगलकारी पर्वत पर आया हूँ। मेरे शरीर में स्थित प्राण ही अग्नि के रूप में बाहर निकलकर सबको वर देने वाले सर्वलोक पितामह ब्रह्मा जी का दर्शन करने के लिये उनके लोक में गया था। मुनिवरो! उन ब्रह्मा ने मेरे प्राण को यह संदेश देकर भेजा है कि साक्षात भगवान शंकर अपने तेज के आधे भाग से आपके पुत्र होंगे। वही यह अग्निरूपी प्राण मेरे पास लौटकर आया है और निकट पहुँचने पर शिष्य की भाँति परिचर्या करने के लिये उसने मेरे चरणों में प्रणाम किया है। इसके बाद शान्त होकर वह अपनी पूर्वावस्था को प्राप्त हो गया। तपोधनों! यह मैंने आप लोगों के निकट बुद्धिमान भगवान विष्णु का गुप्त रहस्य संक्षेप से बताया है। आप लोगों को भय नहीं मानना चाहिये।[1]

आप लोगों की गति सर्वत्र है, उसका कहीं भी प्रतिरोध नहीं है, क्योंकि आप लोग दूरदर्शी हैं। तपस्वी जनों के योग्य व्रत का आचरण करने से आप लोग देदीप्यमान हो रहे हैं तथा ज्ञान और विज्ञान आपकी शोभा बढ़ा रहे हैं। इसलिये मेरी प्रार्थना है कि यदि आप लोगों ने इस पृथ्वी पर या स्वर्ग में कोई महान आश्चर्य की बात देखी या सुनी हो तो उसको मुझे बतलाइये। आप लोग तपोवन में निवास करने वाले हैं, इस जगत में आपके द्वारा कथित अमृत के समान मधुर वचन सुनने की इच्छा मुझे सदा बनी रहती है। महर्षियों! आपका दर्शन देवताओं के समान दिव्य है। यद्यपि द्युलोक अथवा पृथ्वी में जो दिव्य एवं अद्भुत दिखायी देने वाली वस्तु है, जिसे आप लोगों ने भी नहीं देखा है, वह सब मैं प्रत्यक्ष देखता हूँ। सर्वज्ञता मेरा उत्तम स्वभाव है। वह कहीं भी प्रतिहत नहीं होता तथा मुझमें जो ऐश्वर्य है, वह मुझे आश्चर्यरूप नहीं जान पड़ता तथापि सत्पुरुषों के कानों में पड़ा हुआ कथित विषय विश्वास के योग्य होता है और वह पत्थर पर खिंची हुई लकीर की भाँति इस पृथ्वी पर बहुत दिनो तक कायम रहता है। अतः मैं आप साधु-संतो के मुख से निकले हुए वचन को मनुष्यों की बुद्धि का उद्दीपक (प्रकाशक) मानकर उसे सत्पुरुषों के समाज में कहूँगा। यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण के समीप बैठे हुए सभी ऋषियों को बड़ा विस्मय हुआ। वे कमलदल के समान खिले हुए नेत्रों से उनकी ओर देखने लगे। कोई उन्हें बधाई देने लगा, कोई उनकी पूजा-प्रशंसा करने लगा और कोई ऋग्वेद की अर्थयुक्त ऋचाओं द्वारा उन मधुसूदन की स्तुति करने लगा। तदनन्तर उन सभी मुनियों ने बातचीत करने में कुशल देवदर्शी नारद को भगवान् की बातचीत का उत्तर देने के लिये नियुक्त किया।

मुनि बोले- प्रभो! मुने! तीर्थयात्रापरायण मुनियों ने हिमालय पर्वत पर जिस अचिन्त्य आश्चर्य का दर्शन एवं अनुभव किया है, वह सब आप आरम्भ से ही ऋषिसमूह के हित के लिये भगवान् श्रीकृष्ण को बताइये। मुनियों के ऐसा कहने पर देवर्षि भगवान नारदमुनि ने यह पूर्वघटित कथा कही।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 139 श्लोक 20-37
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 139 श्लोक 38-50

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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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