ऋषियों का शिव की कृपा विषयक अपने-अपने अनुभव सुनाना

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 18 में ऋषियों का शिव की कृपा विषयक अपने-अपने अनुभव सुनाने का वर्णन हुआ है।[1]

वैशम्पायन-जनमेजय संवाद

वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! तदनन्तर महायोगी श्रीकृष्ण द्वैपायन मुनिश्वर व्यास ने युधिष्ठिर से कहा- ‘बेटा! तुम्हारा कल्याण हो। तुम भी इस स्तोत्र का पाठ करो, जिससे तुम्हारे ऊपर भी महेश्वर प्रसन्न हों। ‘पुत्र! महाराज! पूर्वकाल की बात है, मैंने पुत्र की प्राप्ति के लिये मेरु पर्वत पर बड़ी भारी तपस्या की थी। उस समय मैंने इस स्तोत्र का अनेक बार पाठ किया था। ’पाण्डुनन्दन! इसके पाठ से मैंने अपनी मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लिया था। उसी प्रकार तुम भी शंकर जी से सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लोगे ’तत्पश्चात् वहाँ सांख्य के आचार्य देव सम्मानित कपिल ने कहा- ‘मैने भी अनेक जन्मों तक भक्तिभाव से भगवान शंकर की आराधना की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान ने मुझे भवभयनाशक ज्ञान प्रदान किया था।’ तदनन्तर इन्द्र के प्रिय सखा आलम्बगोत्रीय चारूशीर्ष ने जो आलम्बायन नाम से ही प्रसिद्ध तथा परम दयालु हैं, इस प्रकार कहा- ‘पाण्डुनन्द! पूर्वकाल में गोकर्ण तीर्थ मे जाकर मैंने सौ वर्षों तक तपस्या करके भगवान शंकरको संतुष्ट किया। इससे भगवान शंकर की ओर से मुझे सौ पुत्र प्राप्त भगवान श्रीकृष्ण एवं विभिन्न महर्षियों का युधिष्ठिर को उपदेश हुए, जो अयोनिज, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, परम तेजस्वी, जरारहित, दुःखहीन और एक लाख वर्ष की आयु वाले थे।’ इसके बाद भगवान वाल्मीकि ने राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- ‘भारत’! एक समय अग्निहोत्री मुनियों के साथ मेरा विवाद हो रहा था। उस समय उन्होंने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया कि ’तुम ब्रह्म हत्यारे हो जाओ।’ उनके इतना कहते ही मैं क्षणभर में उस अधर्म से व्याप्त हो गया। तब मै। पापरहित एवं अमोघ शक्ति वाले भगवान शंकर की शरण में गया। इससे मैं उस पाप से मुक्त हो गया। फिर उन दुःखनाशन त्रिपुरहन्ता रुद्र ने मुझसे कहा- ‘तुम्हें सर्वश्रेष्ठ सुयश प्राप्त होगा।’ इसके बाद धर्मात्माओं में श्रेष्ठ जमदग्निनन्दन परशुराम जी ऋषियों के बीच में खड़े होकर सूर्य के समान प्रकाशित होते हुए वहाँ कुन्तीकुमार युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले- ‘ज्येष्ठ पाण्डव! नरेश्वर! मैंने पितृतुल्य बड़े भाइयों को मारकर पितृवध और ब्राहाण वध का पाप कर डाला था।

ऋषियों द्वारा अपना अनुभव सुनाना

इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ और मै। पवित्र भासे महादेव जी की शरणमें गया। शरणागत होकर मैंने इन्हीं नामोंसे रुद्रदेवकी स्तुति की। इससे मुझे अपना परशु एवं दिव्यास्त्र देकर बोले-’तुम्हें पाप नहीं लगेगा। तुम युद्धमें अजेय हो जाओंगे। तुमपर मृत्युका वश नहीं चलेगा तथा तुम अजर-अमर बने रहोगे’ इस प्रकार कल्याणमय विग्रहवाले जटाधारी भगवान शिवने मुझसे जो कुछ कहा, वह सब कुछ उन ज्ञानी महेश्वरके कृपाप्रसादसे मुझे प्राप्त हो गया’। तदनन्तर विश्वामित्र जी ने कहा, ’राजन! जिस समय मैं क्षत्रिय था, उन दिनोंकी बात है, मेरे मन में यह दृढ़ संकल्प हुआ कि मैं ब्राह्मण हो जाउं-यही उदेश्य लेकर मैंने भगवान शंकर की आराधना की। और उनकी कृपासे मैंने अत्यन्त दुर्लभ ब्रह्मणत्व प्राप्त कर लिया।’ तत्पश्चात् असित, देवल ने पाण्डुकुमार राजा युधिष्ठिर से कहा- ’कुन्तीनन्दन! प्रभो! इन्द्र के शाप से मेरा धर्म नष्ट हो गया था; किंतु भगवान शंकर ने ही मुझे धर्म, उत्तम यश तथा दीर्घ आयु प्रदान की।’ इसके बाद इन्द्रके प्रिय सखा और बृहस्पति के समान तेजस्वी मुनिवर भगवान गृत्समद ने अजमीढवंषी युधिष्ठिरसे कहा-‘‘चाक्षुष मनु के पुत्र भगवान वरिष्ठ के नाम से प्रसिद्ध हैं। एक समय अचिन्त्य शक्तिशाली शतक्रतु इन्द्र का एक यज्ञ हो रहा था जो एक हजार वर्षो तक चलने वाला था। उसमें मैं रथनन्तर साम का पाठ कर रहा था। मेरे द्वारा उस सामका उच्चारण होने पर वरिष्ठ ने मुझसे कहा- ‘द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे द्वारा रथन्तर साम का पाठ ठीक नहीं हो रहा है।[1]


‘‘विप्रवर! तुम पापपूर्ण आग्रह छोड़कर फिर अपनी बुद्धि से विचार करो। सुदुर्मते! तुमने ऐसा पाप कर डाला है, जिससे यह यज्ञ ही निष्फल हो गया’। ‘ऐसा कहकर महाक्रोधी वरिष्ठ ने भगवान शंकर की ओर देखते हुए फिर कहा- ‘तुम ग्यारह हजार आठ सौ वर्षों तक जल और वायु से रहित तथा अन्य पशुओं से परित्यक्त केवल रूरू तथा सिंहों से सेवित जो यज्ञों के लिये उचित नही है- ऐसे वृक्षों से भरे हुए विशालवन में बुद्धिशून्य, दुखी, सर्वदा भयभीत, वनचारी और महान कष्ट मे मग्न क्रूर स्वभाव वाले पशु होकर रहोगे’ कुन्तीनन्दन! उनका यह वाक्य पूरा होते ही मैं क्रूर पशु हो गया। तब मैं भगवान शंकर की शरण में गया। अपनी शरण में आये हुए मुझ सेवक से योगी महेश्वर इस प्रकार बोले- ‘मुने! तुम अजर-अमर और दुःख रहित हो जाओगे। तुम्हें मेरी समानता प्राप्त हो और तुम दोनों यजमान और पुरोहित का यह यज्ञ सदा बढ़ता रहे’’ इस प्रकार सर्वव्यापी भगवान शंकर सबके उपर अनुग्रह करते हैं। ये ही सबका अच्छे ढंग से धारण-पोषण करते हैं और सर्वदा सबके सुख-दुःख का भी विधान करते हैं।’’ ‘‘तात! समर भूमि के श्रेष्ठ वीर! ये अचिन्त्य भगवान शिव मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा आराधना करने योग्य हैं। उनकी आराधना का ही यह फल है कि पाण्डित्य में मेरी समानता करने वाला आज कोई नहीं है।’’ उस समय बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण फिर इस प्रकार बोले- ‘‘मैंने सुवर्ण- जैसे नेत्र वाले महादेवजी को अपनी तपस्या से संतुष्ट किया। ‘‘युधिष्ठिर! तब भगवान शिव ने मुझसे प्रसन्नता-पूर्वक कहा- ‘श्रीकृष्ण! तुम मेरी कृपा से प्रिय पदार्थों की अपेक्षा भी अत्यन्त प्रिय होओगे। युद्ध में तुम्हारी कभी पराजय नहीं होगी तथा तुम्हें अग्नि के समान दुस्सह तेज की प्राप्ति होगी।’ ‘‘इस तरह महादेव जी ने मुझे और भी सहस्रों वर दिये। पूर्वकाल में अन्य अवतारों के समय मणिमन्थ पर्वत पर मैंने लाखों-करोड़ों वर्षों तक भगवान शंकर की आराधना की थी।’’ इससे प्रसन्न होकर भगवान ने मुझसे कहा- ‘कृष्ण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मन से जैसी रुचि हो, उसके अनुसार कोई वर मांगो। ‘‘यह सुनकर मैंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कहा- ‘यदि मेरी परम भक्ति से भगवान महादेव प्रसन्न हों तो ईशान! आप के प्रति नित्य-निरन्तर मेरी स्थिर भक्ति बनी रहे।’ तब ‘एवमस्तु’ कहकर भगवान शिव वहीं अन्तर्धान हो गये।’’ जैगीशव्य उवाच जैगीशव्य बोले- युधिष्ठिर! पूर्वकाल में भगवान शिव ने काशीपुरी के भीतर अन्य प्रबल प्रयत्न से संतुष्ट हो मुझे अणिमा आदि आठ सिद्धियां प्रदान की थीं। गर्ग उवाच गर्ग ने कहा- पाण्डुनन्दन! मैंने सरस्वती के तटपर मानस यज्ञ करके भगवान शिव को संतुष्ट किया था। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे चौसठ कलाओं का अद्भुत ज्ञान प्रदान किया। मुझे मेरे ही समान एक सहस्र ब्रहावादी पुत्र दिये तथा पुत्रों सहित मेरी दस लाख वर्ष की आयु नियत कर दी।

पराशर कथन

पराशर जी ने कहा- नरेश्वर! पूर्वकाल में यहाँ मैंने महादेव जी को प्रसन्न करके मन-ही-मन उनका चिन्तन आरम्भ किया। मेरी इस तपस्या का उदेश्य यह था कि मुझे महेश्वर की कृपा से महातपस्वी, महातेजस्वी, महायोगी, महायशस्वी, दयालु, श्रीसम्पन्न एवं ब्रह्मानिष्ठ वेदव्यास नामक मनोवांछित पुत्र प्राप्त हो। मेरा ऐसा मनोरथ जानकर सुरश्रेष्ठ शिव ने मुझसे कहा- ‘मुने! तुम्हारी मेरे प्रति जो सम्भावना है अर्थात जिस वर को पान की लालसा है, उसी से तुम्हें कृष्ण नामक पुत्र प्राप्त होगा। ‘सावर्णिक मन्वन्तर के समय जो सृष्टि होगी, उसमें तुम्हारा यह पुत्र सप्तर्षि के पदपर प्रतिष्ठित होगा तथा इस वैवस्वत मन्वन्तर में वह वेदों का वक्ता, कौरव-वंश का प्रवर्तक, इतिहास का निर्माता, जगत्का हितैषी तथा देवराज इन्द्र का परम प्रिय महामुनि होगा। पराशर! तुम्हारा वह पुत्र सदा अजर-अमर रहेगा।’ युधिष्ठिर! ऐसा कहकर महायोगी, शक्तिशाली, अविनाशी और निर्विकार भगवान शिव वहीं अन्तर्धान हो गये।। माण्डव्य उवाच माण्डव्य बोले-नरेश्वर! मैं चोर नहीं था तो भी चोरी के संदेह में मुझे शूली पर चढ़ा दिया गया। वहीं से मैंने महादेवजी की स्तुति की। तब उन्होंने मुझसे कहा- ‘विप्रवर! तुम शूल से छूटकारा पा जाओगे और दस करोड़ वर्षों तक जीवित रहोगे। तुम्हारे शरीर में इस शूल के धँस ने से कोई पीड़ा नहीं होगी। तुम आधिव्याधि से मुक्त हो जाओगे।[2]


‘मुने! तुम्हारा यह शरीर धर्म के चौथे पाद सत्य से उत्पन्न हुआ है। अतः तुम अनुपम सत्यवादी होओगे। जाओ, अपना जन्म सफल करो। ‘ब्रहान! तुम्हें बिना किसी विध्न-बाधा के सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का सौभाग्य प्राप्त होगा। मैं तुम्हारे लिये अक्षय एवं तेजस्वी स्वर्गलोक प्रदान करता हूँ’। महाराज! ऐसा कहकर कृतिवास, महातेजस्वी, वृषभवाहन तथा वरणीय सुरश्रेष्ठ भगवान महेश्वर अपने गणों के साथ वहीं अन्तर्धान हो गये। गालव जी ने कहा- राजन! विश्वामित्र मुनि की आज्ञा पाकर मैं अपने पिताजी का दर्शन करने के लिये घर पर आया। उस समय मेरी माता वैधव्य के दुःख से दुःखी हो जोर-जोर से रोती हुई मुझसे बोली- ‘तात! अनघ! कौशिक मुनि की आज्ञा लेकर घर पर आये हुए वेदविद्या से विभूशित तुझ तरुण एवं जितेन्द्रिय पुत्र को तुम्हारे पिता नहीं देख सके।’ माता की बात सुनकर मैं पिता के दर्शन से निराश हो गया और मन को संयम में रखकर महादेव जी की आराधना करके उनका दर्शन किया। उस समय वे मुझसे बोले- ‘वत्स’! तुम्हारे पिता, माता और तुम तीनों ही मृत्यु से रहित हो जाओगे। अब तुम अपने घर में शीघ्र प्रवेश करो। वहाँ तुम्हें पिता का दर्शन प्राप्त होगा।’ तात युधिष्ठिर! भगवान शिव की आज्ञा से मैंने पुनः घर जाकर वहाँ यज्ञ करके यज्ञशाला से निकले हुए पिता का दर्शन किया। वे उस समय समिधा, कुश और वृक्षों से अपने-आप गिरे हुए पके फल आदि हव्य पदार्थ लिये हुए थे। पाण्डुनन्दन! उन्हें देखते ही मैं उनके चरणों में पड़ गया; फिर पिताजी ने भी उन समिधा आदि वस्तुओं को अलग रखकर मुझे हदय से लगा लिया और मेरा मस्तक सूंघकर नेत्रों के आंसू बहाते हुए मुझसे कहा- ‘बेटा! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम विद्वान होकर घर आ गये और मैंने तुम्हें भर आंख देख लिया।’

वैशम्पायन जी कहते है- जनमेजय! मुनियों के कहे हुए महादेव जी के ये अद्भुत चरित्र सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को बड़ा विस्मय हुआ। फिर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने धर्मनिधि युधिष्ठिर उसी प्रकार कहा जैसे श्रीविष्णु देवराज इन्द्र से कोई बात कहा करते हैं।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-21
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 18 श्लोक 22-48
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 18 श्लोक 49-70

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दान-धर्म-पर्व
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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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