ऊधौ है तू हरि के हित कौ।
हम निरगुन तबही तै जान्यौ, गुन मेटयौ जब पितु कौ।।
समुझहु स्रवन दै सुनियै, प्रगट बखानौ नित कौ।
कूप रतनघट कहि क्यौ निकसै, बिनु गुन बहुतै बित कौ।।
पूरनता तौ तबही बूड़ी, संग गए लै चित कौ।
हम तौ खिझहि ‘सूर’ सुनि पट्पद लोग बटाऊ हित कौ।।3963।।