(ऊधौ) हरि हीं पै ऐसी बनि आवत।
हम तौ भोग जनम नहिं जानति, तापर जोग सिखावत।।
जौ पै कृपा तजी मन माही, मुख कहि कहा जनावत।
पावक बचन सँदेस सुनत, उर सुलगि सुलगि दव लावत।।
रीझे तौ कुबिजा सी दासी, आपुहि आपु हँसावत।
परिमिति जानी ‘सूर’ रावरी, तजि अमृत विष भावत।।4000।।