ऊधौ हम है हरि की दासी।
काहे कौ कटु बचन कहत हौ, करत आपनी हाँसी।।
हमरे गुनहिं गाँठि किन बाँधौ, हम कह कियौ बिगार।
जैसी तुम कीन्ही सो सबही, जानत है ससार।।
जो कुछ भली बुरी तुम कहिहौ, सो सब हम सहि लैहै।
आपन कियौ आपही भुगतहि, दोष न काहू दैहै।।
तुम तौ बड़े बड़े कुल जनमे, अरु सबके सरदार।
यह दुख भयौ ‘सूर’ के प्रभु सौ, कहत लगावन छार।।3543।।