ऊधौ मन तौ एकहि आहि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


 
ऊधौ मन तौ एकहि आहि।
री तौ हरि लै संग सिधारे, जोग सिखावत काहि।।
सुनि सठ कुटिल बचन रस लपट, अबलनि तन धौ चाहि।
अब काहै कौ लौन लगावत, बिरह अनल कै दाहि।।
परमारथ उपचार कहत हौ, विरह-व्यथा कै जाहि।
जाकौ राजरोग कफ़ व्यापत, दह्यौ खवावत ताहि।।
सुंदर स्याम सलोनी मूरति, पूरि रही हिय माहि।
‘सूर’ ताहि तजि निरगुन सिंधुहि, कौन सकै अवगाहि।।3725।।

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