(ऊधौ) ज्यौ करि कृपा पाउँ धारत हौ, त्यौ ही तुम्है जवाऊँ।
मौन गहे तुम बैठि रहौ, हौ मुरली सब्द सुनाऊँ।।
अबहिं सिधारे बन गोचारन, हौ बैठी जस गाऊँ।
निसि आगम श्रीदामा कै सँग, नाचत प्रभुहिं दिखाऊँ।।
को जानै द्विविधा सँकोच बस, तुम डर निकट न आवै।
तब यह दुंद बढै अति दारुन, सखियनि प्रान छुडावै।।
छिन न रहै नँदलाल इहाँ बिनु, जौ कोउ कोटि सिखावै।
‘सूरदास’ ज्यौ मन तै मनसा, अनत कहूँ नहिं धावै।।4051।।