(ऊधौ जौ) हरि आवहिं तौ प्रान रहै।
आवत जात उलटि फिरि बैठत, जीवत अवधि गहै।।
जब वे दाम ऊखल सौं बाँधे, बदन नवाइ रहे।
चुभि जु रही नवनीत चोर छवि, भुलति न ज्ञान कहे।।
तिनसौ ऐसी क्यौ कहि आवति, जिन कुल त्रास सहे।
‘सूर’ स्याम गुन रस निधि तजि कै, क्यौ यह घट निबहै।।3787।।