(ऊधौ) जौ कोउ यह तन फेरि बनावै।
तौऊ नंदनँदन तजि मधुकर, और न मन मै आवै।।
जौ या तन की त्वचा काटि कै, लै करि दुंदुभि साजै।
मधुर उतंग सप्त सुर निकसै, कान्ह कान्ह करि बाजै।।
निकसै प्रान परै जिहि माटी, द्रुम लागै तिहि ठाम।
अब सुनि ‘सूर’ पत्र, फल, साखा, लेत उठै हरि नाम।।3807।।