ऊधौ कहत न कछू बनै।
अधरामृत आस्वादिनि रसना, कैसै जोग सनै।।
जिहि लोचन अवलोके नख सिख, सुंदर नंदतनै।
ते लोचन क्यौ जाहिं और पथ, लै पठये अपनै।।
रागिनि राग तरंग जानि चित, जे स्रुति मुरलि सुने।
ते स्रुति जोग सँदेस सुनत कित, काँकर मेलि हने।।
‘सूरजदास’ स्याम मोहन के, गुन गन भेद गुने।
कनकलता तै उपज न मुकता, पटपद रंग चुने।।3666।।