ऊधौ कब हरि आवैगे -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

भ्रमर-गीत

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ऊधौ कब हरि आवैगे, साँची कहौ न बात।
वै तो रीझे सँग कुबिजा के, कुटिल कुटिल दोउ गात।।
निसि सब बीतति गिनतहिं उड़ गन, वृषा होत परभात।
छिन आँगन छिन गृह बन मधुकर, मग जोबत दिन जात।।
कठिन बान वेध्यौ तन मन मै, बिरह बधिक कियौ घात।
करकत घाव बिकल व्रज वनिता, उन बिनु कछु न सुहात।।
बालापन की प्रीति पुरातन, क्यों मोहन बिसरात।
राजा ह्वै कुबिजा सँग माते, आवत ब्रजहिं लजात।।
कहियत है अधीन दासी के, यहे सुनत अनखात।
‘सूर’ सुमिरि गुनग्राम स्याम के, निसि दिन नही बिहात।। 176 ।।

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