ऊधौ कत हम हरि बिसराई।
सुमिरि सुमिरि गुन जपतिं स्याम के, नैन सजल भरि आई।।
एक दिवस वृंदावन भीतर, रति पति प्रीति बढ़ाई।
जमुना हेरि बुलाइ स्याम घन, अंबर रचि पहिराई।।
दस नख अधरनि धरि मुख अंबुज, पाई जु पकरि मनाई।
‘सूरदास’ प्रभु दीन दयानिधि देहु दरस मन भाई।। 169 ।।