ऊधौ अति ओछे की प्रीति।
बाहर मिलत कपट भीतर यौं, ज्यौ खीरा की रीति।।
मै अपनौ अभिमान जानि कै, चंद चकोरी चीत।
मन, वच, क्रम तन मन सब अरप्यौ लोक लाज कुल जीत।।
इतौ सँदेस कह्यौ हरि सौ तुम, हम जु तजी किहिं नीत।
'सूरदास' प्रभु तुम्हरे दरस कौ, मन जोवत जुग बीत।।4041।।