उपमन्यु द्वारा महादेव की स्तुति

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 14 में उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या का वर्णन हुआ है[1]

उपमन्यु कथन

उस समय देवराज इन्‍द्र ने मुझसे कहा- 'द्विजश्रेष्‍ठ! मैं तुम से बहुत संतुष्‍ट हूँ। तुम्‍हारे मन में जो वर लेने की इच्‍छा हो, वही मुझसे मांग लो।' इन्‍द्र की बात सुनकर मेरा मन प्रसन्‍न नहीं हुआ। मैंने ऊपर से हर्ष प्रकट करते हुए देवराज से यह कहा- 'सौम्‍य! मैं महादेव जी के सिवा तुमसे या दूसरे किसी देवता से वर लेना नहीं चाहता। यह मैं सच्‍ची बात कहता हूँ।' 'इन्‍द्र! हमारा यह कथन सत्‍य है, सत्‍य है और सुनिश्चित है। मुझे महादेव जी को छोड़कर और कोई बात अच्‍छी ही नहीं लगती है।' 'मैं भगवान पशुपति के कहने से तत्‍काल प्रसन्‍नतापूर्वक कीट अथवा अनेक शाखाओं से युक्‍त वृक्ष भी हो सकता हूँ, परंतु भगवान शिव से भिन्‍न दूसरे किसी के वर-प्रसाद से मुझे त्रिभुवन का राज्‍य वैभव प्राप्‍त हो रहा हो तो वह भी अभीष्‍ट नहीं है। 'यदि मुझे भगवान शंकर के चरणारविन्‍दों की वन्‍दना में तत्‍पर रहने का अवसर मिले तो मेरा जन्‍म चाण्‍डालों में भी हो जाये तो यह मुझे सहर्ष स्‍वीकार है। परंतु भगवान शिव की अनन्‍य भक्ति से रहित होकर मैं इन्‍द्र के भवन में भी स्‍थान पाना नहीं चाहता।' 'कोई जल या हवा पीकर ही रहने वाला क्‍यों न हो, जिसकी सुरासुरगुरु भगवान विश्‍वनाथ में भक्ति न हो, उसके दु:खों का नाश कैसे हो सकता है?' 'जिन्‍हें क्षण भर के लिये भी भगवान शिव के चरणारविन्‍दों के स्‍मरण का वियोग अच्‍छा नहीं लगता, उन पुरुषों के लिये अन्‍यान्‍य धर्मों से युक्‍त दूसरी-दूसरी सारी कथाएं व्‍यर्थ हैं। 'कुटिल कलिकाल कोपाकर सभी पुरुषों को अपना मन भगवान शंकर के चरणारविन्‍दों के चिन्‍तन में लगा देना चाहिए। शिव-भक्तिरूपी रसायन के पी लेने पर संसार रूपी रोग का भय नहीं रह जाता है।' 'जिस पर भगवान शिव की कृपा नहीं है, उस मनुष्‍य की एक दिन, आधे दिन, एक मुहूर्त, एक क्षण या एक लव के लिये भी भगवान शंकर में भक्ति नहीं होती है।' ‘शक्र! मैं भगवान शंकर की आज्ञा से कीट या पतंग भी हो सकता हूं, परंन्‍तु तुम्‍हारा दिया हुआ त्रिलोकी का राज्‍य भी नहीं लेना चाहता। 'महेश्‍वर के कहने से यदि मैं कुत्‍ता भी हो जाऊँ तो उसे मैं सर्वोत्तम मनोरथ की पूर्ति समझूंगा, परंतु महादेव जी के सिवा दूसरे किसी से प्राप्‍त हुए देवताओं के राज्‍य को लेने की भी मुझे इच्‍छा नहीं है। ‘न तो मैं स्‍वर्गलोक चाहता हूं, न देवताओं का राज्‍य की पाने की अभिलाषा रखता हूँ। न ब्रह्मालोक की इच्‍छा करता हूँ और न निर्गुण ब्रह्मा का सायुज्‍य ही प्राप्‍त करना चाहता हूँ। भूमण्‍डल की समस्‍त कामनाओं को भी पाने की मेरी इच्‍छा नहीं है। मैं तो केवल भगवान शिव की दासता का ही वरण करता हूँ।' [1]


‘जिनके मस्‍तक पर अर्द्धचन्‍द्रमय उज्‍ज्‍वल एवं निर्मल मुकुट बंधा हुआ है, वे मेरे स्‍वामी भगवान पशुपति जब तक प्रसन्‍न नहीं होते हैं, तब तक मैं जरा– मृत्‍यु और जन्‍म के सैकड़ों आघातों से प्राप्‍त होने वाले दैहिक दु:खों का भार ढोता रहूंगा। ‘जो अपने नेत्रभूत सूर्य, चन्‍द्रमा और अग्नि की प्रभा से उद्भासित होते हैं, त्रिभुवन के सार रूप हैं, जिनसे बढ़कर सारतत्त्व दूसरा नहीं है, जो जगत के आदिकरण, अद्वितीय तथा अजर-अमर हैं, उन भगवान रुद्र को भक्तिभाव से प्रसन्‍न किये बिना कौन पुरुष इस संसार में शांति पा सकता है।' ‘यदि मेरे दोषों से मुझे बारंबार इस जगत में जन्‍म लेना पड़ा तो मेरी यही इच्‍छा है कि उस-उस प्रत्‍येक जन्‍म में भगवान शिव में मेरी अक्षय भक्ति हों।'

इन्‍द्र-उपमन्यु संवाद

इन्‍द्र ने पूछा– ब्रह्मन! कारण के भी कारण जगदीश्‍वर शिव की सत्‍ता में क्‍या प्रमाण है, जिससे तुम शिव के अतिरिक्‍त दूसरे किसी देवता का कृपा-प्रसाद ग्रहण करना नहीं चाहते? उपमन्यु ने कहा– देवराज! ब्रह्मावादी महात्‍मा जिन्‍हें विभिन्‍न मतों के अनुसार सत-असत, व्‍यक्‍त–अव्‍यक्‍त, नित्‍य, एक और अनेक कहते हैं, उन्‍हीं महादेव जी से हम वर मांगेगे। जिनका आदि, मध्‍य और अन्‍त नहीं है, ज्ञान ही जिनका ऐश्‍वर्य है तथा जो चित की चिन्‍तनशक्ति से भी परे हैं और इन्‍हीं कारणों से जिन्‍हें परमात्‍मा कहा जाता है, उन्‍हीं महादेव जी से हम वर प्राप्‍त करेंगे। योगी लोग महादेव जी के समस्‍त ऐश्‍वर्य को ही नित्‍य सिद्ध और अविनाशी बताते हैं। वे कारण रहित हैं और उन्‍हीं से समस्‍त कारणों की उत्‍पत्ति हुई है। अत: महादेव जी की ऐसी महिमा है, इसलिये हम उन्‍हीं से वर मांगते हैं। जो अज्ञानान्‍धकार से परे चिन्‍मय परमज्‍योति: स्‍वरूप हैं, तपस्‍वीजनों के परम तप हैं तथा जिनका ज्ञान प्राप्‍त करके ज्ञानी पुरुष कभी शोक नहीं करते हैं, उन्‍हीं भगवान शिव से हम वर प्राप्‍त करना चाहते हैं। पुरंदर! जो संपूर्ण भू‍तों के उत्‍पादक तथा उनके मनोभाव को जानने वाले हैं, समस्‍त प्राणियों के पराभव (विलय) – के भी जो एकमात्र स्‍थान हैं तथा जो सर्वव्‍यापी और सब कुछ देने में समर्थ हैं, उन्‍हीं महादेवजी की मैं पूजा करता हूँ। जो युक्तिवाद से दूर हैं, जो अपने भक्‍तों को सांख्‍य और योग का परम प्रयोजन (आत्‍यन्तिक दु:खनिवृति और ब्रह्मासाक्षात्‍कार) प्रदान करने वाले हैं, तत्‍वज्ञ पुरुष जिनकी सदा उपासना करते हैं, उन्‍हीं महादेव जी से हम वर के लिये प्रार्थना करते हैं। मधुवन! ज्ञानी पुरुष जिन्‍हें देवेश्‍वर इन्‍द्र रूप तथा सम्‍पूर्ण भूतों के गुरुदेव बताते हैं, उन्‍हीं से हम वर लेना चाहते हैं। जिन्‍होंने पूर्वकाल में आकाशव्‍यापी ब्रह्माण्‍ड एवं लोकस्रष्टा देवेश्‍वर ब्रह्मा को उत्पन्न किया, उन्‍हीं महादेव जी से हम वर प्राप्‍त करना चाहते हैं। देवराज! जो अग्नि, जल, वायु पृथ्‍वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – इन सबका स्रष्टा हो, वह परमेश्‍वर से भिन्‍न दूसरा कौन पुरुष है ? यह बताओ। शक्र! जो मन, बुद्धि, अहंकार, पंचतन्‍मात्रा और दस इन्द्रिय–इन सबकी सृष्टि कर सके, ऐसा कौन पुरुष है जो भगवान शिव से भिन्‍न अथवा उत्‍कृष्‍ट हो? यह बताओ। ज्ञानी महात्‍मा ब्रह्माजी को ही सम्‍पूर्ण विश्‍व का स्रष्टा बताते हैं। परंतु वे देवेश्‍वर महादेव जी की आराधना करके ही महान ऐश्‍वर्य प्राप्‍त करते हैं।[2]

जिस भगवान में ब्रह्मा और विष्‍णु से भी उत्‍तम ऐश्‍वर्य है, वह परमेश्‍वर महादेव के सिवा दूसरा कौन है? यह बताओ तो सही। दैत्‍यों और दानवों के प्रमुख वीर हिरण्‍यकशिपु आदि में जो तीनों लोकों पर आधिपत्‍य स्‍थापित करने और अपने शत्रुओं को कुचल देने की शक्ति सुनी गयी है, उस पर दृष्टि पात करके मैं यह पूछ रहा हूँ कि देवेश्‍वर महादेव के सिवा दूसरा कौन ऐसा है जो दिति के पुत्रों को इस प्रकार अनुपम ऐश्‍वर्य सम्‍पन्‍न कर सके? दिशा, काल, सूर्य, अग्नि, अन्‍य ग्रह, वायु, चन्‍द्रमा और नक्षत्र– ये महादेव जी की कृपा से ही ऐसे प्रभावशाली हुए हैं। इस बात को तुम जानते हो, अत: तुम्‍ही बताओं, परमेश्‍वर महादेव जी के सिवा दूसरा कौन ऐसी अचिन्‍त्‍य शक्ति से सम्पन्‍न है? यज्ञ की उत्‍पति और त्रिपुरा का विनाश भी उन्‍हीं के द्वारा सम्‍पन्‍न हुआ है। प्रधान-प्रधान दैत्‍यों और दानवों को आधिपत्‍य प्रदान करने और शत्रुमर्दन की शक्ति देने वाले भी वे ही हैं। सुरश्रेष्‍ठ पुरंदर! कौशिकवंशावतंस इन्‍द्र! यहाँ बहुत-सी युक्तियुक्‍त सूक्तियों को सुनाने से क्‍या लाभ? आप जो सहस्‍त्र नेत्रों से सुशोभित हैं तथा आपको देखकर सिद्ध, गन्धर्व, देवता और ऋषि जो सम्‍मान प्रदर्शित करते हैं, वह सब देवाधिदेव महादेव के प्रसाद से ही संभव हुआ है। जिस भगवान में ब्रह्मा और विष्‍णु से भी उत्‍तम ऐश्‍वर्य है, वह परमेश्‍वर महादेव के सिवा दूसरा कौन है? यह बताओ तो सही। दैत्‍यों ओर दानवों के प्रमुख वीर हिरण्‍यकशिपु आदि में जो तीनों लोकों पर आधिपत्‍य स्‍थापित करने और अपने शत्रुओं को कुचल देने की शक्ति सुनी गयी है, उस पर दृष्टि पात करके मैं यह पूछ रहा हूँ कि देवेश्‍वर महादेव के सिवा दूसरा कौन ऐसा है जो दिति के पुत्रों को इस प्रकार अनुपम ऐश्‍वर्य सम्‍पन्‍न कर सके? दिशा, काल, सूर्य, अग्नि, अन्‍य ग्रह, वायु, चन्‍द्रमा और नक्षत्र– ये महादेव जी की कृपा से ही ऐसे प्रभावशाली हुए हैं। इस बात को तुम जानते हो, अत: तुम्‍ही बताओं, परमेश्‍वर महादेव जी के सिवा दूसरा कौन ऐसी अचिन्‍त्‍य शक्ति से सम्पन्‍न है ? यज्ञ की उत्‍पति और त्रिपुरा का विनाश भी उन्‍हीं के द्वारा सम्‍पन्‍न हुआ है। प्रधान-प्रधान दैत्‍यों और दानवों को आधिपत्‍य प्रदान करने और शत्रुमर्दन की शक्ति देने वाले भी वे ही हैं। सुरश्रेष्‍ठ पुरंदर! कौशिकवंशावतंस इन्‍द्र! यहाँ बहुत-सी युक्तियुक्‍त सूक्तियों को सुनाने से क्‍या लाभ ? आप जो सहस्‍त्र नेत्रों से सुशोभित हैं तथा आपको देखकर सिद्ध, गन्‍धर्व, देवता और ऋषि जो सम्‍मान प्रदर्शित करते हैं, वह सब देवाधिदेव महादेव के प्रसाद से ही संभव हुआ है। इन्‍द्र! चेतन और अचेतन आदि समस्‍त पदार्थों में 'यह ऐसा है' इस प्रकार जो लक्षण देखा जाता है, वह सब अव्‍यक्‍त, मुक्तकेश एवं सर्वव्‍यापी महादेवजी के ही प्रभाव से प्रकट है, अतएव सब कुछ महेश्‍वर से ही उत्‍पन्‍न हुआ है- ऐसा समझो। भगवान् देवराज! भूलोक से लेकर महर्लोक तक समस्‍त लोक-लोकान्‍तरों में, पर्वत के मध्‍य भाग में, सम्‍पूर्ण द्वीप स्‍थानों में, मेरूपर्वत के वैभवपूर्ण प्रान्‍तों में सर्वत्र ही तत्‍वदर्शी पुरुष महादेवजी की स्थिति बताते हैं। शुक्र! यदि तेजस्‍वी देवगण महादेवजी के सिवा दूसरा कोई सराहा देखते हैं तो असुरों द्वारा कुचले जाने पर वे उसी की शरण में क्‍यों नहीं जाते हैं?[3]

उपमन्यु द्वारा इन्‍द्र से अनुरोध

देवता, यक्ष, नाग और राक्षस- इनमें जब संघर्ष होता और परस्‍पर एक-दूसरे से विनाश का अवसर उपस्थित होता है तब उन्‍हें अपने स्‍थान और ऐश्‍वर्य की प्राप्ति कराने वाले भगवान शिव ही हैं। बताओं तो सही, अन्‍धक को, शुक्र को, दुन्‍दुभि को, महिष को, यक्षराज कु‍बेर की सेना के राक्षसों को तथा निवातकवच नामक दानवों को वरदान देने और उनका विनाश करने में भगवान महेश्‍वर को छोड़कर दूसरा कौन समर्थ है ? पूर्वकाल में महादेव जी के सिवा दूसरे किस देवता के वीर्य की देवासुर गुरु अग्नि के मुख में आहुति दी गयी थी? जिसके द्वारा सुवर्णमय मेरूगिरी का निर्माण हुआ, वह भगवान शिव के सिवा और किस देवता का वीर्य था? दूसरा कौन दिगम्‍बर कहलाता है? संसार में दूसरा कौन उर्घ्‍वरेता है? किसके आधे शरीर में धर्मपत्‍नी स्थित रहती है तथा किसने कामदेव को परास्‍त किया है? इन्‍द्र! बताओं तो सही, किसके उत्‍कृष्‍ट स्‍थान की देवताओं द्वारा प्रशंसा की जाती है ? किसी क्रीड़ा के लिये शमशान भूमि में स्‍थान नियत किया गया है? तथा ताण्‍डव-नृत्‍य में कौन सर्वोपरि बताया जाता है। भगवान शंकर के समान दूसरे किसका ऐश्‍वर्य है? कौन भूतों के साथ क्रीड़ा करता है? देव! किसके पार्षदगण स्‍वामी के समान ही बलवान और ऐश्‍वर्य पर अभिमान करने वाले हैं? किसका स्‍थान तीनों लोकों में पूजित और अविचल बताया जाता है। भगवान् शंकर के सिवा दूसरा कौन वर्षा करता है ? कौन तपता है ? और कौन अपने तेज से प्रज्‍वलित होता है ? किसके औषधियां- खेती-बारी या शस्‍य-सम्‍पत्ति बढ़ती है? कौन धन का धारण-पोषण करता है? कौन चराचर प्राणियों सहित त्रिलोकी में इच्‍छानुसार क्रीड़ा करता है? योगजन ज्ञान, सिद्धि और क्रिया-योगद्वारा भगवान् शिव की ही सेवा करते हैं तथा ऋषि, गन्‍धर्व और सिद्धगण उन्‍हें ही परम कारण मानकर उनका आश्रय लेते हैं। देवता और असुर सब लोग कर्म, यज्ञ और क्रिया-योग द्वारा सदा जिनकी सेवा करते हैं, उन कर्मफल रहित महोदव जी को मैं सबका कारण कहता हूँ। महादेव जी का परमपद स्‍थूल, सूक्ष्‍म, उपमा रहित, इन्द्रियों द्वारा अग्राहृय, सगुण, निर्गुण तथा गुणों का नियामक है। इन्‍द्र! जो सम्‍पूर्ण विश्‍व के अधीश्‍वर, प्रकृति के भी नियामक, लोक (जगत की सृष्टि) तथा सम्‍पूर्ण लोकों के संहार के भी कारण हैं, भूत, वर्तमान और भविष्‍य– तीनों काल जिनके ही स्‍वरूप हैं, जो सबके उत्‍पादक एवं कारण हैं, क्षर-अक्षर, अव्‍यक्‍त, विद्या अविद्या, कृत-अकृत तथा धर्म और अधर्म जिनसे ही प्रकट हुए हैं, उन महादेवजी को ही मैं सबका परम कारण बताता हूँ। देवेन्‍द्र! सृष्टि और संहार के कारणभूत देवाधिदेव भगवान रुद्र ने जो भगचिह्निृत लिंग मूर्ति धारण की है, उसे आप यहाँ प्रत्‍यक्ष देख लें। यह उनके कारण-स्‍वरूप का परिचायक है। इन्‍द्र! मेरी माता ने पहले कहा था कि महादेव जी के अतिरिक्‍त अथवा उनसे बढ़कर कोई लोकरूपी कार्य का कारण नहीं हैं, अत: यदि किसी अभीष्‍ट वस्‍तु के पाने की तुम्‍हारी इच्‍छा हो तो भगवान् शंकर की ही शरण लो।[4]

महादेव की उत्त्पति वर्णन

सुरेश्‍वर! तुम्‍हें प्रत्‍यक्ष विदित है कि ब्रह्मा आदि प्रजापतियों के संकल्‍प से उत्‍पन्‍न हुआ यह बद्ध और मुक्‍त जीवों से युक्‍त त्रिभुवन भग और लिंग से प्रकट हुआ है तथा शहस्‍त्रों कामनाओं से युक्‍त बुद्धिवाले तथा ब्रह्मा, इन्‍द्र, अग्नि एवं विष्‍णु सहित सम्‍पूर्ण देवता और दैत्‍यराज महादेव जी से बढ़कर दूसरे किसी देवताओं को नहीं बताते हैं। जो सम्‍पूर्ण चराचर जगत् के लिये वेद-विख्‍यात् सर्वोत्तम जानने योग्‍य तत्‍व हैं, उन्‍हीं कल्‍याणमय देव भगवान शंकर का कामनापूर्ति के लिये वरण करता हूँ तथा संयतचित होकर सध: मुक्ति के लिये भी उन्‍हीं से प्रार्थना करता हूँ। दूसरे-दूसरे कारणों को बतलाने से क्‍या लाभ ? भगवान शंकर इसलिये भी समस्‍त कारणों के भी कारण सिद्ध होते हैं कि हमने देवताओं द्वारा दूसरे किसी के लिंग को पूजित होते नहीं सुना है। भगवान महेश्‍वर को छोड़कर दूसरे किसके लिंग की सम्‍पूर्ण देवता पूजा करते हैं अथवा पहले कभी उन्‍होनें पूजा की है ? यदि तुम्‍हारे सुनने में आया हो तो बताओ। ब्रह्मा, विष्‍णु तथा सम्‍पूर्ण देवताओं सहित तुम सदा ही शिवलिंग की पूजा करते आये हो, इसलिये भगवान शिव ही सबसे श्रेष्‍ठतम देवता हैं। प्रजाओं के शरीर में न तो पधका चिन्‍ह है, न चक्र का चिन्‍ह है और न वज्र का ही चिन्‍ह उपलक्षित होता है। सभी प्रजा लिंग और भग के चिन्‍ह से युक्‍त हैं, इसलिये यह सिद्ध है कि सम्‍पूर्ण प्रजा माहेश्‍वरी है।[5] देवी पार्वती के कारणस्‍वरूप भाव से संसार की समस्‍त स्त्रियां उत्‍पन्‍न हुई है, इसलिये भाग के चिन्‍ह से अंकित है और भगवान् शिव से उत्‍पन्‍न होने के कारण सभी पुरुष लिंग के चिन्‍ह से चिह्निृत हैं – यह सबको प्रत्‍यक्ष है, ऐसी दशा में जो शिव और पार्वती के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी को कारण बताता है, जिससे कि प्रजा चिह्निृत नहीं है, वह अन्‍य कारणवादी दुर्बुद्धि पुरुष चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों से बाहर कर देने योग्‍य है। जितना भी पुल्लिंग है, वह सब शिवस्‍वरूप है और जो भी शिवस्‍वरूप है और जो भी स्‍त्रीलिंग है उसे उमा समझो। महेश्‍वर और उमा-इन दो शरीरों से ही यह सम्‍पूर्ण चराचर जगत् व्‍याप्त है। सूर्य, चन्‍द्रमा और अग्नि जिनके नेत्र हैं, जो त्रिभुवन के सारतत्त्व, अपार, ईश्‍वर, सबके आदिकारण तथा अजर-अमर हैं, उन रुद्र देव को प्रसन्‍न किये बिना इस संसार में कौन पुरुष शांति पा सकता है। अत: कौशिक! मैं भगवान शंकर से ही वर अथवा मृत्‍यु पाने की इच्‍छा रखता हूँ। बलसूदन इन्‍द्र! तुम जाओ या खड़े रहो, जैसी इच्‍छा हो करो। मुझे महेश्‍वर से चाहे वर मिले, चाहे शाप प्राप्‍त हो, स्‍वीकार है, परंतु दूसरा देवता यदि सम्‍पूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाला हो तो भी मैं उसे नहीं चाहता। देवराज इन्‍द्र से ऐसा कहकर मेरी इन्द्रियां दु:ख से व्‍याकुल हो उठी और मैं सोचने लगा कि यह क्‍या कारण हो गया कि महादेव जी मुझ पर प्रसन्‍न नहीं हो रहे हैं। तदनन्‍तर एक ही क्षण में मैंने देखा कि वही ऐरावत हाथी अब वृषभरूप धारण करके स्थित है। उसका वर्ण हंस, कुन्‍द और चन्‍द्रमा के समान श्‍वेत है। उसकी अंगकांति मृणाल के समान उज्‍ज्‍वल और चांदी के समान चमकीली है। जान पड़ता था साक्षात क्षीरसागर ही वृषभरूप धारण करके खड़ा हो। काली पूंछ, विशाल शरीर और मधु के समान पिंगल वर्ण वाले नेत्र शोभा पा रहे थे।[6]

उसके सींग ऐसे जान पड़ते थे मानो वज्र के सारतत्‍व से बने हों। उनसे तपाये हुए सुवर्ण की-सी प्रभा फैल रही थी। उन सींगों के अग्रभाग अत्‍यंत तीखे, कोमल तथा लाल रंग के थे। ऐसा लगता था मानो उन सींगों के द्वारा वह इस पृथ्‍वी को विदीर्ण कर डालेगा। उसके शरीर को सब ओर से जाम्‍बूनद नामक सुवर्ण की लड़ियों से सजाया गया था। उसके मुख, खुर, नासिका (नथुने), कान और कटिप्रदेश-सभी बड़े सुन्‍दर थे। उसके अलग-बगल का भाग भी बड़ा मनोहर था। कंधे चौड़े और रूप सुन्‍दर था। वह देखने में बड़ा मनोहर जान पड़ता था। उसका ककुद् समूचे कंधे घेरकर उंचे उठा था। उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। हिमालय पर्वत के शिखर अथवा श्‍वेत बादलों के विशाल खण्‍ड के समान प्रतीत होने वाल उस नन्दिकेश्‍वर पर देवाधिदेव भगवान महादेव भगवती उमा के साथ आरूढ़ हो पूर्णिमा के चन्‍द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे। उनके तेज से प्रकट हुई अग्नि की- सी प्रभा गर्जना करने वाले मेघों सहित सम्‍पूर्ण आकाश को व्‍याप्‍त करके सहस्‍त्रों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रही थी। वे महातेजस्‍वी महेश्‍वर ऐसे दिखायी देते थे मानों कल्‍पान्‍त के समय सम्‍पूर्ण भूतों को दग्‍ध कर देने की इच्‍छा से उद्धत हुई प्रलयकालीन अग्नि प्रज्‍वलित हो उठी हो। वे अपने तेज से सब ओर व्‍याप्‍त हो रहे थे, अत: उनकी ओर देखना कठिन था। तब मैं उद्विग्‍नचित होकर फिर इस‍ चिन्‍ता में पड़ गया कि यह क्‍या है ? इतने ही में एक मुहूर्त बीतते-बीतते वह तेज सम्‍पूर्ण दिशाओं में फैलकर देवाधिदेव महोदेवजी की माया से सब ओर शांत हो गया। तत्‍पश्‍चात मैंने देखा, भगवान् महेश्‍वर स्थिर भाव से खड़े हैं। उनके कण्‍ठ में नील चिहृन शोभा पा रहाथा। वे महात्‍मा कहीं भी आसक्‍त नहीं थे। वे तेज की निधि जान पड़ते थे। उनके अठारह भुजाएं थीं। वे भगवान् स्‍थाणु समस्‍त आभूषणों से विभूषित थे।। महादेव जी ने श्‍वेत वस्‍त्र धारण कर रखा था। उनके श्रीअंगों में श्‍वेत चन्‍दन का अनुलेप लगा था। उनकी ध्‍वजा भी श्‍वेत वर्ण की ही थी। वे श्‍वेत रंग का यज्ञोपवीत धारण करने वाले और अजेय थे। वे अपने ही समान पराक्रमी दिव्‍य पार्षदों से घिरे हुए थे। उनके वे पार्षदों से‍ घिरे हुए थे। उनके वे पार्षद सब ओर गाते, नाचते और बाजे बजाते थे। भगवान् शिव के मस्‍तक पर बाल चन्‍द्रमा का मुकुट सुशोभित था। उनकी अंग-कान्ति श्‍वेतवर्ण की थी। वे शरद ऋतु के पूर्ण चन्‍द्रमा के समान उदित हुए थे। उनके तीनों नेत्रों से ऐसा प्रकाश-पुंज छा रहा था मानों तीन सूर्य उदित हुए हों। जो सम्‍पूर्ण विद्याओं के अधिपति, शरत्‍काल के चन्‍द्रमा की भाँति कान्तिमान् तथा नेत्रों के लिये परमानन्‍द-दायक सौभाग्‍य प्रदान करने वाले थे। इस प्रकार मैंने परमेश्‍वर महादेव जी के मनोहर रूप को देखा।। भगवान् के उज्‍जवल प्रभा वाले गौर विग्रह पर सुवर्ण मय कमलों से गुंथी हुई रत्‍नभूषित माला बड़ी शोभा पा रही थी। गोविन्‍द! मैंने अमित तेजस्‍वी महादेवजी के सम्‍पूर्ण तेजोमय आयुधों को मूर्तिमान होकर उनकी सेवामें उपस्थित देखा था। उन महात्‍मा रुद्र देव का इन्‍द्र धनुष के समान रंग वाला जो पिनाक नाम से विख्‍यात धनुष है, वह विशाल सर्प के रूप में प्रकट हुआ था। [7]

उपमन्यु द्वारा महादेव की स्तुति

उसके सात फन थे। उसका डीलडौल भी विशाल था। तीखी दाढ़े दिखायी देती थीं। वह अपने प्रचण्‍ड विष के कारण मतवाला हो रहा था। उसकी विशाल ग्रीवा प्रत्‍यंचा से आवेष्टि थी। वह पुरुष-शरीर धारण करके खड़ा था। भगवान जो बाण था वह सूर्य और प्रलयकालीन अग्नि के समान प्रचण्‍ड तेज से प्र‍काशित होता था। यही अत्‍यंत भयंकर एवं महान दिव्‍य पाशुपत अस्‍त्र था।। उसके जोड़ का दूसरा अस्‍त्र नहीं था। समस्‍त प्राणियों को भय देने वाला वह विशालकाय अस्त्र निर्वचनीय जान पड़ता था और अपने मुख से चिनगारियों सहित अग्नि की वर्षा कर रहा था। वह भी सर्प के ही आकार में दृष्टिगोचर होता था। उसके एक पैर, बहुत बड़ी दाढ़े, सहस्‍त्रों सिर, सहस्‍त्रों पेट, सहस्‍त्रों भुजा, सहस्‍त्रो जिहृा और सहस्‍त्रों नेत्र थे। वह आग-सा उगल रहा था। महाबाहो! सम्‍पूर्ण शस्त्रों का विनाश करने वाला वह पाशुपत अस्‍त्र ब्राहृा, नारायण, ऐन्‍द्र, आग्‍नेय और वारूण अस्‍त्र से भी बढ़कर शक्तिशाली था। गोविन्‍द! उसी के द्वारा महादेव जी ने लीलापूर्वक एक ही बाण मारकर क्षणभर में दैत्‍यों के तीनों पुरों को जलाकर भस्‍म कर दिया था। भगवान् महेश्‍वर की भुजाओं से छूटने पर वह अस्‍त्र चराचर प्राणियों सहित सम्‍पूर्ण त्रिलोकी को आधे निमेष में ही भस्‍म कर देता है - इसमें संशय नहीं है। इस लोक में जिस अस्‍त्र के लिये ब्रह्मा, विष्‍णु आदि देवताओं में से भी कोई अवध्‍य नहीं है, उस परम उत्‍तम आश्‍चर्य मय पाशुपतास्‍त्र को मैंने यहाँ प्रत्‍यक्ष देखा था। वह श्रेष्‍ठ अस्‍त्र परम गोपनीय है। उसके समान अथवा उससे बढ़कर भी दूसरा कोई श्रेष्‍ठ अस्‍त्र नहीं है। त्रिशुलधारी भगवान शंकर का सम्‍पूर्ण लोकों में विख्‍यात जो वह‍ त्रिशुल नामक अस्‍त्र हैवह शूलपाणि शंकर के द्वारा छोड़े जाने पर इस सारी पृथ्‍वी को विदीर्ण कर सकता है, महासागर को सुखा सकता है अथवा समस्‍त संसार का संहार कर सकता है। श्रीकृष्‍ण! पूर्वकाल में त्रिलोकविजयी, महातेजस्‍वी, महाबली, महान वीर्यशाली, इन्‍द्रतुल्‍य पराक्रमी चक्रवर्ती राजा मान्‍धाता लवणासुर के द्वारा प्रयुक्‍त हुए उस शूल से ही सेना सहित नष्‍ट हो गये थे। अभी वह अस्‍त्र उस असुर के हाथ से छूटने भी नहीं पाया था कि राजा का सर्वनाश हो गया। उस शूल का अग्रभाग अत्‍यंत तीक्ष्‍ण है। वह बहुत ही भयंकर और रोमांचकारी है, मानो वह अपनी भौंहे तीन जगह से टेढ़ी करके विरोधी को डांट बता रहा हो, ऐसा जान पड़ता है। गोविन्‍द! धूमरहित आग की ज्‍वालाओं सहित वह काला त्रिशुल प्रलयकाल के सूर्य के समान उदित हुआ था, और हाथ में सर्प लिये अवर्णनीय शक्तिशाली पाशधारी यमराज के समान जान पड़ता था। भगवान रुद्र के निकट मैंने उसका भी दर्शन किया था। पूर्वकाल में महादेवजी ने संतुष्‍ट होकर परशुराम को जिसका दान किया था और जिसके द्वारा महासमर में चक्रवर्ती राजा कार्तवीर्य अर्जुन मारा गया था, क्षत्रियों का विनाश करने वाला वह तीखी धार से युक्‍त परशु मुझे भगवान रुद्र के निकट दिखायी दिया था। गोविन्‍द! अनायास ही महान कर्म करने वाले जमदग्निनन्‍दन परशुराम ने उसी परशु के द्वारा इक्‍कीस बार इस पृथ्‍वी को क्षत्रियों से शून्‍य कर दिया था।[8]

उसकी धार चमक रही थी, उसका मुखभाग बड़ा भयंकर जान पड़ता था। वह सर्पयुक्‍त कण्‍ठवाले महादेव जी के अग्रभाग में स्थित था। इस प्रकार शूलधारी भगवान शिव के समीप वह परशु सैकड़ों प्रज्‍वलित अग्नियों के समान देदीप्‍यमान होता था। निष्‍पाप श्रीकृष्‍ण! बुद्धिमान भगवान शिव के असंख्‍य दिव्‍यास्‍त्र हैं। मैंने यहाँ आपके सामने इन प्रमुख अस्‍त्रों का वर्णन किया है। उस समय महादेव जी के दाहिने भाग में लोकपितामह ब्रहृा मन के समान वेगशाली हंसयुक्‍त दिव्‍य विमान पर बैठे हुए शोभा पा रहे थे और बायें भाग में शंख, चक्र और गदा धारण किये भगवान नारायण गरूड पर विराजमान थे। कुमार स्‍कन्‍द मोरपर चढ़कर हाथ में शक्ति और घंटा लिये पार्वती देवी के पास ही खड़े थे। वे दूसरे अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। महादेव जी आगे मैंने नन्‍दी को उपस्थित देखा, जो शूल उठाये दूसरे शंकर के समान खड़े थे। स्‍वायम्‍भुव आदि मनु, भृगु आदि ऋषि तथा इन्‍द्र आदि देवता- ये सभी वहाँ पधारे थे। समस्‍त भूतगण और नाना प्रकार की मातृकाएं उपस्थित थी। वे सब देवता महात्‍मा महादेव जी को चारों ओर से घेरकर नाना प्रकार के स्‍तोत्रों द्वारा उनकी स्‍तुति कर रहे थे। ब्रहृाजी ने रथन्‍तर सामका उच्‍चारण करके उस समय भगवान् शंकर की स्‍तुति की। नारायण ने ज्‍येष्‍ठसाम द्वारा देवेश्‍वर शिव की महिमा का गान किया। इन्‍द्र ने उत्‍तम शतरुद्रियका सरस्‍वर पाठ करते हुए परब्रहृा शिव का स्‍तवन किया। ब्रह्मा, नारायण और देवराज इन्‍द्र- ये तीनों महात्‍मा तीन अग्नियों के समान शोभा पा रहे थे। इन तीनों के बीच में विराजमान भगवान शिव शरद-ऋतु के बादलों के आवरण से मुक्‍त हो परिधि (घेरे)- में स्थित हुए सूर्य देव के समान शोभा पा रहे थे। केशव! उस समय मैंने आकाश में सहस्‍त्रों चन्‍द्रमा और सूर्य देखे। तदनन्‍तर मैं सम्‍पूर्ण जगत् के पालक महादेव जी की स्‍तुति करने लगा।[9]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 173-188
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 189-203
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 204-212
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 213-228
  5. महादेव जी से उत्‍पन्‍न हुई है
  6. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 229-240
  7. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 241-256
  8. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 257-273
  9. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 274-292

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दान-धर्म-पर्व
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अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान 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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों 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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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