विरह-पदावली -सूरदास
(317) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) उतनी दूर से अब (यहाँ) कौन आता है। जिसके द्वारा संदेश कहलाकर भेजूँ, वह बता दो, वहाँ क्या कहने पायेगा? (वहाँ वह पहुँच भी गया तो उस राजदरबार में जाकर कह कैसे सकेगा।) समुद्र के किनारे एक देश है, जिसे न देखा है न (उसका वर्णन) सुना है और न मन की ही (वहाँ) पहुँच है। (मन में उसकी कल्पना भी नहीं आती)। वहाँ नन्दकुमार ने एक नवीन नगर का निर्माण किया है, जो द्वारकापुरी कहलाती है। (वहाँ) सोने के बहुत-से सुन्दर भवन हैं, (इसलिये) वहाँ कोई गरीब फूस की झोपड़ी नहीं छाता। अतएव वहाँ के निवास करने वाले लोगों को (भला) व्रज में रहना कैसे अच्छा लग सकता है। इस प्रकार वियोगिनी अनेक प्रकार से विलाप करती (मोहन से मिलन के) अनेक उपायों को चित्त में लाती है (तथा कहती है-) ‘कहाँ जाऊँ, क्या करूँ और कौन (हमें) हमारे स्वामी प्रियतम हरि एक पास पहुँचाये।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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