- महाभारत उद्योग पर्व के सेनोद्योगपर्व के अंतर्गत नवें अध्याय में 'इंद्र द्वारा त्रिशिरा के वध' का वर्णन है। यहाँ वैशम्पायन जी ने इंद्र के द्वारा त्रिशिरा के वध की कथा कही गयी है।[1]
शल्य द्वारा इंद्र की दुख प्राप्ति का वर्णन
शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न होना कथा में जब शल्य युधिष्ठिर को बताते हैं कि महात्मा पुरुष भी समय-समय पर दुःख पाते हैं। पृथ्वीपते! देवताओं ने भी बहुत दुःख उठाये हैं। भरतवंशी नरेश! सुना जाता है कि पत्नी सहित महामना देवराज इन्द्र ने महान दुःख भोगा है। तो इस पर युधिष्ठिर ने पूछा- राजेन्द्र! पत्नी सहित महामना इन्द्र ने कैसे अत्यन्त भयंकर दुःख प्राप्त किया था? यह मैं जानना चाहता हूँ।
विषय सूची
त्रिशिरा की उत्पत्ति एवं तपस्या
शल्य ने कहा- भरतवंशी नरेश! यह पूर्वकाल में घटित पुरातन इतिहास है। पत्नी सहित इन्द्र ने जिस प्रकार महान दु:ख प्राप्त किया था, वह बताता हूँ, सुनो। त्वष्टा नाम से प्रसिद्ध एक प्रजापति थे, जो देवताओं में श्रेष्ठ और महान तपस्वी माने जाते थे। कहते हैं, उन्होंने इन्द्र के प्रति द्रोहबुद्धि हो जाने के कारण ही तीन सिर वाला पुत्र उत्पन्न किया। उस महातेजस्वी बालक का नाम था विश्वरूप। वह सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि के समान तेजस्वी एवं भयंकर था। अपने उन तीनों मुखों द्वारा इन्द्र का स्थान पाने की प्रार्थना करता था। वह अपने एक मुख से वेदों का स्वाध्याय करता, दूसरे से सुरा पीता और तीसरे से सम्पूर्ण दिशाओं की ओर इस प्रकार देखता था, मानो उन्हें पी जायेगा। शत्रुदमन! त्वष्टा का वह पुत्र कोमल स्वभाव वाला, तपस्वी, जितेन्द्रिय तथा धर्म और तपस्या के लिये सदा उद्यत रहने वाला था। उसका बड़ा भारी तीव्र तप दूसरों के लिये अत्यन्त दुष्कर था। उस अमित तेजस्वी बालक का तपोबल तथा सत्य देख कर इन्द्र को बड़ा दुःख हुआ। वे सोचने लगे, 'कहीं यह इन्द्र न हो जाय। क्या उपाय किया जाय जिससे यह भोगों में आसक्त हो जाय और भारी तपस्या में प्रवृत्त न हो? क्योंकि यह वृद्धि को प्राप्त हुआ त्रिशिरा तीनों लोकों को अपना ग्रास बना लेगा'।
इंद्र द्वारा अप्सराओं को भेजना
भरतश्रेष्ठ! इस तरह बहुत सोच-विचार करके बुद्धिमान इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र को लुभाने के लिये अप्सराओं को आज्ञा दी। अप्सराओं! जिस प्रकार त्रिशिरा कामभोगों में अत्यन्त आसक्त हो जाय, शीघ्र वैसा ही यत्न करो। जाओ, उसे लुभाओ, विलम्ब न करो। सुन्दरियों! तुम सब श्रृंगार के अनुरूप वेष धारण करके मनोहर हारों से विभूषित, हाव-भाव से संयुक्त तथा सौन्दर्य से सुशोभित हो विश्वरूप को लुभाओ। तुम्हारा कल्याण हो, मेरे भय को शान्त करो। वरांगनाओं! मैं अपने आपको अस्वस्थचित्त देख रहा हूँ, अतः अबलाओ! तुम मेरे इस अत्यन्त घोर भय का शीघ्र निवारण करो। अप्सराएँ बोलीं- शक्र! बलनिषूदन! हम लोग विश्वरूप को लुभाने के लिये ऐसा यत्न करेंगी, जिससे उनकी ओर से आपको कोई भय नहीं प्राप्त होगा। देव! जो तपोनिध विश्वरूप अपने दोनों नेत्रों से सबको दग्ध करते हुए से विराज रहे हैं, उन्हें प्रलोभन में डालने के लिए हम सब अप्सराएँ एक साथ जा रही हैं। वहाँ उन्हें वश में करने तथा आपके भय को दूर हटाने के लिये हम पूर्ण प्रयत्न करेंगी।
शल्य बोले- राजन! इन्द्र की आज्ञा पाकर वे सब अप्सराएँ त्रिशिरा के समीप गयीं। उन सुन्दरियों ने भाँति-भाँति के हाव-भावों द्वारा उन्हें लुभाने का प्रयत्न किया तथा प्रतिदिन विश्वरूप को अपने अगों के सौन्दर्य का दर्शन कराया। तथापि वे महातपस्वी महर्षि उन सबको देखते हुए हर्ष आदि विकारों को नहीं प्राप्त हुए; अपितु वे इन्द्रियों को वश में करके पूर्वसागर के समान शान्तभाव से बैठ रहे। वे सब अप्सराएँ त्रिशिरा को विचलित करने का पूरा प्रयत्न करके पुनः देवराज इन्द्र की सेवा में उपस्थित हुईं और हाथ जोड़कर बोलीं- प्रभो! वे त्रिशिरा बड़े दुर्धर्ष तपस्वी हैं, उन्हें धैर्य से विचलित नहीं किया जा सकता। महाभाग! अब आपको जो कुछ करना हो, उसे कीजिये।[1]
त्रिशिरा का वध
युधिष्ठिर! तब परम बुद्धिमान इन्द्र ने अप्सराओं का आदर-सत्कार करके उन्हें विदा कर दिया और वे त्रिशिरा के वध का उपाय सोचने लगे। प्रतापी वीर बुद्धिमान देवराज इन्द्र चुपचाप सोचते हुए त्रिशिरा के वध के विषय में एक निश्चय पर पहुँच गये। उन्होंने सोचा आज मैं त्रिशिरा पर वज्र का प्रहार करूँगा जिससे वह तत्काल नष्ट हो जायेगा। बलवान पुरुष को दुर्बल होने पर भी बढ़ते हुए अपने शत्रु की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। शास्त्रयुक्त बुद्धि से त्रिशिरा के वध का दृढ़ निश्चय करके क्रोध में भरे हुए इन्द्र ने अग्नि के समान तेजस्वी, घोर एवं भंयकर वज्र को त्रिशिरा की ओर चला दिया। उस वज्र की गहरी चोट खाकर त्रिशिरा मरकर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो वज्र के आघात से टूटा हुआ पर्वत का शिखर भूतल पर पड़ा हो। त्रिशिरा को वज्र के प्रहार से प्राणशून्य होकर पर्वत की भाँति पृथ्वी पर पड़ा देखकर भी देवराज इन्द्र को शान्ति नहीं मिली। वे उनके तेज से संतप्त हो रहे थे। क्योंकि वे मारे जाने पर भी अपने तेज से उद्दीप्त होकर जीवित-से दिखायी देते थे। युद्ध में मारे हुए त्रिशिरा के तीनों सिर जीते-जागते से अद्भुत प्रतीत हो रहे थे। इससे अत्यन्त भयभीत हो इन्द्र भारी सोच-विचार में पड़ गये।[2]
इन्द्र का बढ़ई को आदेश देना
इसी समय एक बढ़ई कंधे पर कुल्हाड़ी लिये उधर आ निकला। महाराज! वह बढ़ई उसी वन में आया, जहाँ त्रिशिरा को मार गिराया गया था। डरे हुए शचीपति इन्द्र ने वहाँ अपना काम करते हुए बढ़ई को देखा। देखते ही पाकशासन इन्द्र ने तुरन्त उससे कहा- बढ़ई! तू शीघ्र इस शव के तीनों मस्तकों के टुकड़े-टुकड़े कर दे। मेरी इस आज्ञा का पालन कर। बढ़ई ने कहा- इसके कंधे तो बड़े भारी और विशाल हैं। मेरी यह कुल्हाड़ी इस पर काम नहीं देगी और इस प्रकार किसी प्राणी की हत्या करना तो साधु पुरुषों-द्वारा निन्दित पाप कर्म है, अतः मैं इसे नहीं कर सकूँगा। इन्द्र ने कहा- बढ़ई! तू भय न कर। शीघ्र मेरी इस आज्ञा का पालन कर। मेरे प्रसाद से तेरी यह कुल्हाड़ी वज्र के समान हो जायेगी।
बढ़ई ने पूछा- आज इस प्रकार भयानक कर्म करने वाले आप कौन हैं, यह कैसे समझूँ? मैं आपका परिचय सुनना चाहता हूँ। यह यथार्थ रूप से बताइये। इन्द्र ने कहा- बढ़ई! तुझे मालूम होना चाहिये कि मैं देवराज इन्द्र हूँ। मैंने जो कुछ कहा है, उसे शीघ्र पूरा कर। इस विषय में कुछ विचार न कर। बढ़ई ने कहा- देवराज! इस क्रूर कर्म से आपको यहाँ लज्जा कैसे नहीं आती है? इस ऋषि कुमार की हत्या करने से ब्रह्महत्या का पाप लगेगा, क्या उसका भय आपको नहीं है? इन्द्र ने कहा- यह मेरा महान शक्तिशाली शत्रु था, जिसे मैंने वज्र से मार डाला है। इसके बाद ब्रह्महत्या से अपनी शुद्धि करने के लिये मैं किसी ऐसे धर्म का अनुष्ठान करूँगा, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुष्कर हो। बढ़ई! यद्यपि यह मारा गया है, तो भी अभी तक मुझे इसका भय बना हुआ है। तू शीघ्र इसके मस्तकों के टुकड़े-टुकड़े कर दे। मैं तेरे ऊपर अनुग्रह करूँगा। मनुष्य हिंसा प्रधान तामस यज्ञों में पशु का सिर तेरे भाग के रूप में देंगे। बढ़ई! यह तेरे ऊपर मेरा अनुग्रह है अब तू जल्दी मेरा प्रिय कार्य कर।
शल्य कहते हैं- राजन! यह सुनकर बढ़ई ने उस समय महेन्द्र की आज्ञा के अनुसार कुठार से त्रिशिरा के तीनों सिरों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। कट जाने पर उनके अंदर से तीन प्रकार के पक्षी बाहर निकले, कपिञ्जल, तीतर और गौरैये। जिस मुख से वे वेदों का पाठ करते तथा केवल सोमरस पीते थे, उससे शीघ्रतापूर्वक कपिञ्जल पक्षी बाहर निकले थे। युधिष्ठिर! जिसके द्वारा वे सम्पूर्ण दिशाओं को इस प्रकार देखते थे, मानो पी जायँगे, उस मुख से तीतर पक्षी निकले। भरतश्रेष्ठ! त्रिशिरा का जो मुख सुरापान करने वाला था, उससे गौरैये तथा बाज नामक पक्षी प्रकट हुए। उन तीनों सिरों के कट जाने पर इन्द्र की मानसिक चिन्ता दूर हो गयी। वे प्रसन्न होकर स्वर्ग लौट गये तथा बढ़ई भी अपने घर चला गया। उस बढ़ई ने भी अपने घर जाकर किसी से कुछ नहीं कहा। तदनन्तर इन्द्र ने ऐसा काम किया है, यह एक वर्ष तक किसी को मालूम नहीं हुआ।[2]
इंद्र का ब्रह्महत्या से मुक्ति पाना
युधिष्ठिर! वर्ष पूर्ण होने पर भगवान पशुपति के भूतगण यह हल्ला मचाने लगे कि हमारे स्वामी इन्द्र ब्रह्महत्यारे हैं। तब पाकशासन इन्द्र ने ब्रह्महत्या से मुक्ति पाने के लिये कठिन व्रत का आचरण किया। वे देवताओं तथा मरुग्दणों के साथ तपस्या में संलग्न हो गये। उन्होंने समुद्र, पृथ्वी, वृक्ष तथा स्त्री समुदाय को अपनी ब्रह्महत्या बाँटकर उन सब को अभीष्ट वरदान दिया। इस प्रकार वरदायक इन्द्र ने पृथ्वी, समुद्र वनस्पति तथा स्त्रियों को वर देकर उस ब्रह्महत्या को दूर किया। तदनन्तर शुद्ध होकर भगवान इन्द्र देवताओं, मनुष्यों तथा महर्षियों से पूजित होते हुए अपने इन्द्रपद पर आसीन हुए। दैत्यों का संहार करने वाले इन्द्र ने शत्रु मारकर अपने आपको कृतार्थ माना।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 9 श्लोक 38-58
- ↑ 2.0 2.1 2.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 9 श्लोक 19-37
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| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
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| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
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| भीष्म और परशुराम का युद्ध
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| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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