इन्द्र

Disamb2.jpg इन्द्र एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- इन्द्र (बहुविकल्पी)
इन्द्र

'इन्द्र' वैदिक युग का प्रथम देवता था। उसे देवताओं के राजा (देवराज) के रूप में स्मरण किया गया है। ऋग्वेद के लगभग एक चौथाई मंत्रों में उसका उल्लेख है। इससे उसके महत्त्व और व्यापक प्रभाव का पता चलता है। उसे कहीं पर संज्ञावत का देवता बताया गया है जो बादलों में गर्जन और बिजली पैदा करता है। कहीं पर उसे सूर्य देवता माना गया है। परंतु उसका मुख्य महत्त्व देवताओं को विजयी बनाने के कारण है। यह विजय वह प्राकृतिक शक्तियों को अनुकूल बनाकर दिलाता है। साथ ही उन पर चपटी नाक वाले और काले आदिवासियों को पराजित करके भी जो आर्यों का विस्तार रोकते थे। इस प्रसंग में वृत्तासुर के संदर्भ का इन्द्र विशेष महत्त्व है। जिसका वध इन्द्र ने दधीचि की हड्डियों के वज्र से किया था। महर्षि हविष्मान इन्द्र-सभा में रहकर इन्द्र की उपासना करते थे।

ऋग्वेद में इन्द्र

ऐरावत पर सवार इंद्रदेव

ऋग्वेद के प्राय: 250 सूक्तों में इन्द्र का वर्णन है तथा 50 सूक्त ऐसे हैं जिनमें दूसरे देवों के साथ इन्द्र का वर्णन है। इस प्रकार लगभग ऋग्वेद के चतुर्थांश में इन्द्र का वर्णन पाया जाता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन्द्र वैदिक युग का सर्वप्रिय देवता था। इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ अस्पष्ट है। अधिकांश विद्वानों की सम्मति में इन्द्र झंझावात का देवता है। जो बादलों में गर्जन एवं बिजली की चमक उत्पन्न करता है। किन्तु हिलब्रैण्ट के मत से इन्द्र सूर्य देवता है। वैदिक भारतीयों ने इन्द्र को एक प्रबल भौतिक शक्ति माना जो उनकी सैनिक विजय एवं साम्राज्यवादी विचारों का प्रतीक है। प्रकृति का कोई भी उपादान इतना शक्तिशाली नहीं जितना विद्युत-प्रहार। इन्द्र को अग्निदेव का जुड़वाँ भाई[1] कहा गया है जिससे विद्युतीय अग्नि एवं यज्ञवेदीय अग्नि का सामीप्य प्रकट होता है। ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय 'इन्द्र' का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है, ऋग्वेद के क़रीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हें वर्षा का देवता माना जाता था।

परिचय

इन्द्र

इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है।

  • अधिकांश वैदिक विद्वानों का मत है कि वृत्र सूखा (अनावृष्टि) का दानव है और उन बादलों का प्रतीक है जो आकाश में छाये रहने पर भी एक बूँद जल नहीं बरसाते। इन्द्र अपने वज्र प्रहार से वृत्ररूपी दानव का वध कर जल को मुक्त करता है और फिर पृथ्वी पर वर्षा होती है। ओल्डेनवर्ग एवं हिलब्रैण्ट ने वृत्र-वध का दूसरा अर्थ प्रस्तुत किया है। उनका मत है कि पार्थिव पर्वतों से जल की मुक्ति इन्द्र द्वारा हुई है।
  • हिलब्रैण्ट ने सूर्य रूपी इन्द्र का वर्णन करते हुए कहा है: वृत्र शीत (सर्दी) एवं हिम का प्रतीक है, जिससे मुक्ति केवल सूर्य ही दिला सकता है। ये दोनों ही कल्पनाएँ इन्द्र के दो रूपों को प्रकट करती हैं, जिनका प्रदर्शन मैदानों के झंझावात और हिमाच्छादित पर्वतों पर तपते हुए सूर्य के रूप में होता है। वृत्र से युद्ध करने की तैयारी के विवरण से प्रकट होता है कि देवों ने इन्द्र को अपना नायक बनाया तथा उसे शक्तिशाली बनाने के लिए प्रभूत भोजन-पान आदि की व्यवस्था हुई। इन्द्र प्रभूत सोमपान करता है। इन्द्र का अस्त्र वज्र है जो विद्युत प्रहार का ही एक काल्पनिक नाम है।
  • ऋग्वेद में इन्द्र को जहाँ अनावृष्टि के दानव वृत्र का वध करने वाला कहा गया है, वहीं उसे रात्रि के अन्धकार रूपी दानव का वध करने वाला एवं प्रकाश का जन्म देने वाला भी कहा गया है।
  • ऋग्वेद के तीसरे मण्डल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी।




टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋग्वेद .6.59.2

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