विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! गोपाल के इतनी-सी (अल्प) दूर रहने पर भी मैं कभी उनसे मिलकर नहीं आयी, इसके लिये क्या कहा- किसे दोष दिया जाय। यह तो अपनी ही मूर्खता है। सखी! सुनो, सोते समय स्वपन में (मैंने) कंगालिनी के समान (श्यामसुन्दर रूपी) सम्पत्ति प्राप्त की। किंतु उसे गिन ही रही थी (देख ही रही थी) कि अचानक उपवन में आकर कोकिल ने बोलकर (मुझे) जगा दिया। जो जागती हूँ तो फिर क्या देखूँ, उलटे अधिक व्याकुल हो गयी; क्योंकि कामदेव की दुहाई-विजयघोष दसों दिशाओं में नवीन पल्लव, पुष्प और भौंरे ने (गुंजार करके) फैला दी। सखी! (मोहन का) वियोग होते समय उसी क्षण मैंने शरीर नहीं छोड़ा और न हठपूर्वक उनके साथ ही गयी। उस समय तो (यह दशा होगी ऐसी बात) समझ में नहीं आती। (अब) प्रेम का उपहास (मिथ्या प्रेम प्रकट) कर रही हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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