विरह-पदावली -सूरदास
(235) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी! सुनो,) आज वन में मोरों ने आकर गाया। सखी! सुन, जब से (उनका शब्द) कानों में पड़ा है, तब से रहा नहीं जाता। व्रज से मुरलीमनोहर श्यामसुन्दर क्या बिछुड़े मानो हमें सर्पं ने खा लिया। अब इसकी औषध जानने आले वैद्य वा ओझा श्यामसुन्दर तो हैं नहीं और यह विष (उनकी) मन्त्र की ही दुहाई मानता है। पपीहा और कोकिल ‘पी, पी’ की वाणी सुनाकर रात-दिन दुःख देते रहते हैं। (ऐसी दशा में) हम तो तभी जीवित रहेंगी, जब श्याम आकर मिलें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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