अर्जुन के रथ का दग्ध होना

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 62वें अध्याय में संजय ने अर्जुन के रथ का दग्ध होने और अर्जुन द्वारा उसका रहस्य पूछने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

अर्जुन के रथ का जलना

संजय बोले- महाराज! कुरुराज के शिबिर में पहुँकर रथियों में श्रेष्ठ पाण्डव अपने रथों से नीचे उतरे। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् सदा अर्जुन के प्रिय एवं हित में तत्पर रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने गाण्डीवधारी अर्जुन से कहा- 'भरतवंशशिरोमणे! तुम गाण्डीव धनुष को और इन दोनों बाणों से भरे हुए अक्षय तरकसों को उतार लो। फिर स्वयं भी उतर जाओ! इसके बाद मैं उतरूँगा! अनघ! ऐसा करने में ही तुम्हारी भलाई है।' वीर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने वह सब वैसे ही किया। तदनन्तर परम बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण घोड़ों की बागडोर छोड़कर गाण्डीवधारी अर्जुन के रथ से स्वयं भी उतर पड़े। समस्त प्राणियों के ईश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण के उतरते ही गाण्डीधारी अर्जुन का ध्वज स्वरूप दिव्य वानर उस रथ से अन्तर्धान हो गया। पृथ्वीनाथ! इसके बाद अर्जुन का वह विशाल रथ, जो द्रोण और कर्ण के दिव्यास्त्रों द्वारा दग्धप्राय हो गया था, तुरंत ही आग से प्रज्वलित हो उठा। गाण्डीवधारी का वहाँ रथ उपासंग, बागडोर, जूआ, बन्धुरकाष्ठ और घोड़ों सहित भस्म होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्रभो! नरेश्वर! उस रथ को भस्मीभूत हुआ देख समस्त पाण्डव आश्चर्यचकित हो उठे और अर्जुन ने भी हाथ जोड़कर भगवान के चरणों में बारंबार प्रणाम करके प्रेमपूर्वक पूछा- 'गोविन्द! यह रथ अकस्मात कैसे आग से जल गया? भगवन! यदुनन्दन! यह कैसी महान आश्चर्य की बात हो गयी? महाबाहो! यदि आप सुनने योग्य समझे तो इसका रहस्य मुझे बतावें।'

कृष्ण द्वारा रथ के जलने का रहस्य बताना

श्रीकृष्ण ने कहा- शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन! यह रथ नाना प्रकार के अस्त्रों द्वारा पहले ही दग्ध हो चुका था; परंतु मेरे बैठे रहने के कारण समरांगण में भस्म होकर गिर न सका। कुन्तीनन्दन! आज जब तुम अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर चुके हो, तब मैंने इसे छोड़ दिया है; इसलिये पहले से ही ब्रह्मास्त्र के तेज से दग्ध हुआ यह रथ इस समय बिखरकर गिर पड़ा है। इसके बाद शत्रुओं का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण किंचित मुस्कराते हुए वहाँ राजा युधिष्ठिर को हृदय से लगाकर कहा- कुन्तीनन्दन! सौभाग्य से आपकी विजय हुई और सारे शत्रु परास्त हो गये। राजन! गाण्डीवधारी अर्जुन, पाण्डुकुमार भीमसेन, आप और माद्रीपुत्र पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव -ये सब-के-सब सकुशल हैं तथा जहाँ वीरों का विनाश हुआ और तुम्हारे सारे शत्रु काल के गाल में चले गये, उस घोर संग्राम से तुम लोग जीवित बच गये, यह बड़े सौभाग्य की बात है।[1] भरतनन्दन! अब आगे समयानुसार जो कार्य प्राप्त हो उसे शीघ्र कर डालिये। पहले गाण्डीवधारी अर्जुन के साथ जब मैं उपलव्य नगर में आया था; उस समय मेरे लिये मधुपर्क अर्पित करके आपने मुझसे यह बात कही थी कि श्रीकृष्ण! यह अर्जुन तुम्हारा भाई और सखा है। प्रभो! महाबाहो! तुम्हें इसकी सब आपत्तियों से रक्षा करनी चाहिये। आपने जब ऐसा कहा, तब मैंने तथास्तु कहकर वह आज्ञा स्वीकार कर ली थी। जनेश्वर! राजेन्द्र! आपका वह शूरवीर, सत्यपराक्रमी भाई सव्यसाची अर्जुन मेरे द्वारा सुरक्षित रहकर विजयी हुआ है तथा वीरों का विनाश करने वाले इस रोमांचकारी संग्राम से भाइयों सहित जीवित बच गया है। [2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 62 श्लोक 1-22
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 62 श्लोक 23-45

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