- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 74 में अर्जुन के द्वारा त्रिगर्तों की पराजय का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
वैशम्पायन कुरुक्षेत्र के युद्ध का वर्णन
वैशम्पायन जी कहते हैं– राजन! कुरुक्षेत्र के युद्ध में जो त्रिगर्त वीर मारे गये थे, उनके महारथी पुत्रों और पौत्रों ने किरीटधारी अर्जुन के साथ वैर बांध लिया था। त्रिगर्त देश में जाने पर अर्जुन का उन त्रिगर्तों के साथ घोर युद्ध हुआ था। ‘पाण्डवों का यज्ञ सम्बन्धी उत्तम अश्व हमारे राज्य की सीमा में आ पहुँचा है’ यह जानकर त्रिगर्तवीर कवच आदि से सुसज्जित हो पीठ पर तरकस बॉधे सजे–सजाये अच्छे घोड़ों से जुते हुए रथ पर बैठकर निकले और उस अश्व को उन्होंने चारों ओर से घेर लिया। राजन! घोड़े को घेरकर वे उसे पकड़ने का उद्योग करने लगे। शत्रुओं का दमन करने वाले अर्जुन यह जान गये कि वे क्या करना चाहते हैं। उनके मनोभाव का विचार करके वे उन्हें शान्तिपूर्वक समझाते हुए युद्ध से रोकने लगे। किंतु वे सब उनकी बात की अवहेलना करके उन्हें बाणों द्वारा चोट पहुँचाने लगे। तमोगुण और रजोगुण के वशीभूत हुए उन त्रिगर्तों को किरीट ने युद्ध से रोकने की पूरी चेष्टा की। भारत! तदनन्तर विजयरशील अर्जुन हँसते हुए– से बोले–‘धर्म को न जानने वाले पापात्माओं! लौट जाओ। जीवन की रक्षा में ही तुम्हारा कल्याण है। वीर अर्जुन ने ऐसा इसलिये कहा कि चलते समय धर्मराज युधिष्ठिर ने यह कहकर मना कर दिया था कि ‘कुन्तीनन्दन! जिन राजाओं के भाई–बन्धु कुरुक्षेत्र युद्ध में मारे गये हैं, उनका तुम्हें वध नहीं करना चाहिये।’ बुद्धिमान धर्मराज के इस आदेश को सुनकर उसका पालन करते हुए ही अर्जुन ने त्रिगर्तों को लौट जाने की आज्ञा दी तथापि वे नहीं लौटे। तब उसे युद्ध स्थल में त्रिगर्तराज सूर्यवर्मा के सारे अंगों मे वाण धँसकर अर्जुन हँसने लगे। यह देख त्रिगर्तदेशीय वीर रथ की घरघराहट और पहियों की आवाज से सारी दिशाओं को गुँजाते हुए वहाँ अर्जुन टूट पड़े। राजेन्द्र! तदनन्तर सूर्य वर्मा ने अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए अर्जुन पर झुकी हुई गांव वाले एक सौ बाणों का प्रहार किया। इसी प्रकार उसके अनुयायी वीरों में भी जो दूसरे–दूसरे महान धनुर्धर थे, वे भी अर्जुन को मार डालने की इच्छा से उन पर बाणों की वर्षा करने लगे। राजन! पाण्डुपुत्र अर्जुन ने अपने धनुष की प्रत्यञ्चा से छूटे हुए बहुसंख्यक बाणों द्वारा शत्रुओं के बहुत–से बाणों को काट डाला। वे कटे हुए बाण टुकड़े–टुकड़े होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। ( सूर्य वर्मा के परास्त होने पर ) उसका छोटा भाई केतुवर्मा जो एक तेजस्वी नवयुवक था, उपने भाई का बदला लेने के लिये यशस्वी वीर पाण्डुपुत्र अर्जुन के साथ युद्ध करने लगा। केतुवर्मा को युद्ध स्थल में धावा करते देख शत्रु वीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने अपने तीखे बाणों से उसे मार डाला। केतु वर्मा के मारे जाने पर महारथी धृत वर्मा रथ के द्वारा शीघ्र ही वहाँ आ धमका और अर्जुन पर बाणों की वर्षा करने लगा। धृत वर्मा अभी बालक था तो भी उसकी फुर्ती को देखकर महातेजस्वी पराक्रमी अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए।[1]
अर्जुन के द्वारा त्रिगर्तों की पराजय का वर्णन
वह कब बाण हाथ में लेता है और कब उसे धनुष पर चढ़ाता है, उसको इन्द्रकुमार अर्जुन भी नहीं देख पाते थे। उन्हें केवल इतना ही दिखायी देता था कि वह बाणों की वर्षा कर रहा है। उन्होंने रणभूमि में थोड़ी देर तक मन-ही–मन धृतवर्मा की प्रशंसा की और युद्ध में उसका हर्ष एवं उत्साह बढ़ाते रहे। यद्यपि धृतवर्मा सर्प के समान क्रोध में भरा हुआ था तो भी कुरुवीर महाबाहु अर्जुन प्रेमपूर्वक मुसकराते हुए युद्ध करते थे। उन्होंने उसके प्राण नहीं लिये। इस प्रकार अमित तेजस्वी अर्जुन के द्वारा जान–बूझकर छोड़ दिये जाने पर धृतवर्मा ने उनके ऊपर एक अत्यन्त प्रज्वलित बाण चलाया। उस बाण ने तुरन्त आकर अर्जुन के हाथ में गहरी चोट पहुँचायी। उन्हें मूर्च्छा आ गयी और उनका गाण्डीव धनुष हाथ से छूटकर पृथ्वी पर जा पड़ा। प्रभो! भरतनन्दन! अर्जुन के हाथ से गिरते हुए उस धनुष का रूप इन्द्रधनुष के समान प्रतीत होता था। उस दिव्य महाधनुष के गिर जाने पर महासमर में खड़ा हुआ धृत वर्मा ठहाका लगाकर जोर–जोर से हँसने लगा। इससे अर्जुन का रोष बढ़ गया। उन्होंने हाथ से रक्त पोंछकर उस दिव्य धनुष को पुन: उठा लिया और धृत वर्मा पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। फिर तो अर्जुन के उस पराक्रम की प्रशंसा करते हुए नाना प्रकार के प्राणियों का कोलाहल समूचे आकाश में व्याप्त। अर्जुन को काल, अंत तक और यमराज के समान कुपित हुआ देख त्रिगर्तदेशीय योद्धाओं ने चारों ओर से आकर उन्हें घेर लिया। धृतवर्मा की रक्षा के लिये सहसा आक्रमण करके त्रिगर्तों ने गुडाकेश अर्जुन को सब ओर से घेर लिया, तब उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। फिर तो उन्होंने इन्द्र के वज्र की भाँति दुस्सह लौह निर्मित बहुसंख्यक बाणों द्वारा बात–की–बात में उनके अठारह प्रमुख योद्धाओं को यमलोक पहुँचा दिया। तब तो त्रिगर्तों में भगदड़ मच गयी। उन्हें भागते देख अर्जुन ने जोर–जोर से हँसते हुए बड़ी उतावली के साथ सर्पाकार बाणों द्वारा उन सबको मारना आरम्भ किया। राजन! धनंजय के बाणों से पीड़ित हुए समस्त त्रिगर्तदेशीय महारथियों का युद्ध विषयक उत्साह नष्ट हो गया ; अत: वे चारों दिशाओं में भाग चले। उनमें से कितने ही संशप्तकसूदन पुरुष सिंह अर्जुन से इस प्रकार कहने लगे– ‘कुन्तीनन्दन! हम सब आपके आज्ञाकरी सेवक हैं और सभी सदा आपके अधीन रहेंगे। ‘पार्थ! हम सभी सेवक विनीत भाव से आपके सामने खड़े हैं। आप हमें आज्ञा दें। कौरवनन्दन! हम सब लोग आपके समस्त प्रिय कार्य सदा करते रहेंगे। उनकी ये बातें सुनकर अर्जुन ने उनसे कहा–‘राजाओं! अपने प्राणोंकी रक्षा करो। इसका एक ही उपाय है, हमारा शासन स्वीकार कर लो।’[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 74 श्लोक 1-17
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 74 श्लोक 18-34
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