अर्जुन का सैन्धवों के साथ युद्ध

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 77 में अर्जुन का सैन्धवों के साथ युद्ध का वर्णन हुआ है।[1]

वैशम्पायन द्वारा अर्जुन तथा सैन्धवों के साथ युद्ध का वर्णन

वैशम्‍पायन जी कहते है– भरतनन्‍दन! महाराज भगदत्त के पुत्र राजा वज्रदत्त को पराजित और प्रसन्‍न करने के पश्‍चात उसे विदा करके जब अर्जुन का घोड़ा सिंधु देश में गया, तब महाभारत– युद्ध में मरने से बचे हुए सिंधु देशीय योद्धाओं तथा मारे गये राजाओं के पुत्रों के साथ किरीटधारी अर्जुन का घोर संग्राम हुआ। यज्ञ के घोड़े को और श्‍वेत वाहन अर्जुन को अपने राज्‍य के भीतर आया हुआ सुनकर वे सिंधुदेशीय क्षत्रिय अमर्ष में भरकर उन पाण्‍डव प्रवर अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़े। वे विष के समान भयंकर क्षत्रिय अपने राज्‍य के भीतर आये हुए उस घोड़े को पकड़कर भीमसेन के छोटे भाई अर्जुन से तनिक भी भयभीत नहीं हुए। यज्ञ सम्‍बन्‍धी घोड़े से थोड़ी ही दूर पर अर्जुन हाथ में धनुष लिये पैदल ही खड़े थे। वे सभी क्षत्रिय उनके पास जा पहुँचे। वे महापराक्रमीक्षत्रिय पहले युद्ध में अर्जुन से परास्‍त हो चुके थे और अब उन पुरुषसिंह को पार्थ को जीतना चाहते थे। अत: उन सबने उन्‍हें घेर लिया। वे अर्जुन से अपने नाम, गोत्र और नाना प्रकार के कर्म बताते हुए उन पर बाणों की बौछार करने लगे। वे ऐसे बाण समूहों की वर्षा करते थे, जो हाथियों को आगे बढ़ने से रोक देने वाले थे। उन्‍होंने रणभूमि में विजय की अभिलाषा रखकर कुन्‍ती कुमार को घेर लिया। युद्ध में भयानक कर्म करने वाले अर्जुन को पैदल देखकर वे सभी वीर रथ पर आरूढ़ हो उनके साथ युद्ध करने लगे। निवाम कवचों का विनाश, संशप्‍तकों का संहार और जयद्रथ का वध करने वाले वीर अर्जुन पर सैन्‍धवों ने सब ओर से प्रहार आरम्‍भ कर दिया। एक हजार रथ और दस हजार घोड़ों से अर्जुन को घेरकर उन्‍हें कोष्‍ठबद्ध–सा करके वे मन–ही–मन बड़े प्रसन्‍न हो रहे थे।

कुरुनन्‍दन! कुरुक्षेत्र के समरांगण में सव्‍यसाची अर्जुन द्वारा जो सिंधुराज जयद्रथ का वध हुआ था, उसकी याद उन वीरों को कभी भूलती नहीं थी। वे सब योद्धा मेघ के समान अर्जुन पर बाणों की वर्षा करने लगे। उन बाणों से आच्‍छादित होकर कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन बादलों में छिपे हुए सूर्य की भाँति शोभा पा रहे थे। भरतनन्‍दन! बाणों से आच्‍छादित हुए पाण्‍डवप्रवर अर्जुन पींजड़े के भीतर फुदकने वाले पक्षी की भाँति जान पड़ते थे। राजन! कुन्‍तीकुमार अर्जुन जब इस प्रकार बाणों पीड़ित हो गये, तब उनकी ऐसी अवस्‍था देख त्रिलोकी हाहाकार कर उठी और सूर्यदेव की प्रभा फीकी पड़ गयी। महाराज! उस समय रोंगटे खड़े कर देने वाली प्रचण्‍ड वायु चलने लगी। राहु ने एक ही समय सूर्य और चन्‍द्रमा दोनों को ग्रस लिये। चारों ओर बिखरकर गिरती हुई उल्‍काएं सूर्य से टकराने लगीं। राजन! उस समय महापर्वत कैलास भी कांपने लगा। सप्‍तर्षियों और देवर्षियों को भी भय होने लगा। वे दु:ख और शोक से संतप्‍त हाक अत्‍यन्‍त गरम–गरम सांस छोड़ने लगे। पूर्वोक्‍त उल्‍काऐं चन्‍द्रमा में स्‍थित हुए शशचिन्‍ह का भेदन करके चन्‍द्रमण्‍डल के चारों ओर गिरने लगीं। सम्‍पूर्ण दिशाएं धूमाच्‍छन्‍न होकर विपरीत प्रतीत होने लगीं।[1]

अर्जुन द्वारा बाणों की वर्षा

गधे के समान रंग और लाल रंग के सम्‍मिश्रण से जो रंग हो सकता है, वैसे वर्णवाले मेघ आकाश को घेरकर रक्‍त ओर मांस की वर्षा करने लगे। उनमें इन्‍द्रधनुष का भी दर्शन होता था और बिजलियाँ भी कौंधती थीं। भरतश्रेष्‍ठ! वीर अर्जुन के उस समय शत्रुओं की बाण–वर्षा से आच्‍छादित हो जाने पर ऐसे–ऐसे उत्‍पात प्रकट होने लगे। वह अदभुत–सी बात हुई। उस बाण समूह के द्वारा सब ओर से आच्‍छादित हुए अर्जुन पर मोह छा गया। उस समय उनके हाथ से गाण्‍डीव धनुष और दस्‍ताने गिर पड़े। महारथी अर्जुन जब मोहग्रस्‍त एवं अचेत हो गये, उस समय भी सिंधु देशीय योद्धा उन पर वेगपूर्वक महान बाण समूह की वर्षा करते रहे। अर्जुन को मोह के वशीभूत हुआ जान सम्‍पूर्ण देवता मन–ही–मन संत्रस्‍त हो गये और उनके लिये शान्‍ति का उपाय करने लगे। फिर तो समस्‍त देवर्षि, सप्‍तर्षि और ब्रह्मर्षि मिलकर बुद्धिमान अर्जुन की विजय के लिये मन्‍त्र–जप करने लगे। पृथ्‍वीनाथ! तदनन्‍तर देवताओं के प्रयत्‍न से अर्जुन का तेज पुन: उद्दीपन हो उठा और उत्‍तम अस्‍त्र-विद्या के ज्ञाता परम बुद्धिमान धनंजय संग्राम भूमि में पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हो गये। फिर तो कौरवनन्‍दन अर्जुन अपने दिव्‍य धनुष की प्रत्‍यंचा खींची। उस समय उससे बार–बार मशीन की तरह जोर–जोर से टंकार–ध्‍वनि होने लगी। इसके बाद जैसे इन्‍द्रपानी की वर्षा करते हैं, उसी तरह प्रभावशाली पार्थ ने अपने धनुष द्वारा शत्रुओं पर बाणों की झड़ी लगा दी। फिर तो पार्थ के बाणों से आच्‍छादित हो समस्‍त सैन्‍धव योद्धा टिड्डियों से ढके हुए वृक्षों की भाँति अपने राजा सहित अदृश्‍य हो गये। कितने ही गाण्‍डीव की टंकार–ध्‍वनि से ही थर्रा उठे। बहुतेरे भय से व्‍याकुल होकर भाग गये और अनेक सैन्‍धव योद्धा शोक से आतुर होकर आंसू बहाने एवं शोक करने लगे। राजन! उस समय महाबली पुरुष सिंह अर्जुन अलात चक्र की भाँति घूम–घूम कर सारे सैन्‍धवों पर बाण–समूहों की वर्षा करने लगे। शत्रु सूदन अर्जुन ने वज्रधारी महेन्‍द्र की भाँति सम्‍पूर्ण दिशाओं से इन्‍द्र जाल के समान बाणों का जाल–सा फैला दिया। जैसे शरत्‍काल के सूर्य मेघों की घटा को छिन्‍न–भिन्‍न करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार कौरवश्रेष्‍ठ अर्जुन अपने बाणों की वृष्‍टि से शत्रु सेना को विदीर्ण करके अत्‍यन्‍त शोभा पाने लगे।[2]

वैशम्‍पायन-जनमेजय संवाद

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– जनमेजय! तदनन्‍तर गाण्‍डीवधारी शूरवीर अर्जुन युद्ध के लिये उद्यत हो गये। वे शत्रुओं के लिये दुर्जन थे और युद्धभूमि में हिमवान पर्वत के समान अचल भाव से डटे रहकर बड़ी शोभा पाने लगे। भरतनन्‍दन! तदनन्‍तर सिन्‍धुदेशीय योद्धा फिर से संगिठत होकर खड़े हो गये और अत्‍यन्‍तक्रोध में भरकर बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय महाबाहु कुन्‍तीकुमार अर्जुन पुन: मरने की इच्‍छा से खड़े हुए सैन्‍धवों को सम्‍बोधित करके हंसते हुए मधुर वाणी में बोले– ‘वीरों! तुम पूरी शक्‍ति लगाकर युद्ध करो और मुझ पर विजय पाने का प्रयत्‍न करते रहो। तुम अपने सारे कार्य पूरे कर लो। तुम लोगों पर महान भय आ पहुँचा है। यह देखो– मैं तुम्‍हारें बाणों का जाल छिन्‍न–भिन्‍न करके तुम सब लोगों के साथ युद्ध करने को उद्यत हूँ ‘मन में युद्ध का हौसला लेकर खड़े रहो। मैं तुम्‍हारा घमण्‍ड चूर किये देता हूँ।’
भारत! गाण्‍डीवधारी कुरुनन्‍द अर्जुन शत्रुओं से ऐसा वचन कहकर अपने बड़े भाई की कही हुई बातें याद करने लगे। महात्‍मा धर्मराज ने कहा था कि ‘तात! रणभूमि में विजय की इच्‍छा रखने वाले क्षत्रियों का वध न करना। साथ ही उन्‍हें पराजित भी करना।’ इस बात को याद करके पुरुष प्रवर अर्जुन इस प्रकार चिन्‍ता करने लगे। ‘अहो! महाराज ने कहा था कि क्षत्रियों का वध न करना। धर्मराज का वह मंगलमय वचन कैसे मिथ्‍या न हो। राजालोग मारे न जाय और राजा युधिष्‍ठिर की आज्ञा का पालन हो जाय, इसके लिये क्‍या करना चाहिये। ऐसा सोचकर धर्म के ज्ञाता पुरुष प्रवर अर्जुन ने रणोन्‍मत्त सैन्‍धवों से इस प्रकार कहा- ‘योद्धाओं! मैं तुम्‍हारे कल्‍याण की बात बता रहा हूँ। तुममें से जो कोई अपनी पराजय स्‍वीकार करते हुए रणभूमि में यह कहेगा कि मैं आपका हूँ, आपने मुझे युद्ध में जीत लिया है, वह सामने खड़ा रहे तो भी मैं उसका वध नहीं करूँगा।
मेरी यह बात सुनकर तुम्‍हें जिसमें अपना हित दिखायी पड़े, वह करो। ‘यदि मेरे कथन के विपरीत तुम लोग युद्ध के लिये उद्यत हुए तो मुझसे पीड़ित होकर भारी संकट में पड़ जाओगे। उन वीरों से ऐसा कहकर कुरुकुलतिलक अर्जुन अत्‍यन्‍त कुपित हो क्रोध में भरे हुए विजयाभिलाषी सैन्‍धवों के साथ युद्ध करने लगे। राजन! उस समय सैन्‍धवों ने गाण्‍डीवधारी अर्जुन पर झुकी हुई गांठ वाले एक करोड़ बाणों का प्रहार किया। विषधर सर्पों के समान उन कठोर बाणों को अपनी ओर आते देख अर्जुन ने तीखे सायकों द्वारा उन सबको बीच से काट डाला। सान पर चढ़ाकर तेज किये हुए उन कंक पत्र युक्‍त बाणों के तुरन्‍त ही टुकड़े–टुकड़े करके समरांगण में अर्जुन ने सैन्‍धव वीरों में से प्रत्‍येक को पैने बाण मारकर घायल कर दिया।
तदनन्‍तर जयद्रथ–वध का स्‍मरण करके सैन्‍धवों ने अर्जुन पर पुन: बहुत–से प्रासों और शक्‍तियों का प्रहार किया। परंतु महाबली किरीटधारी पाण्‍डुकुमार अर्जुन ने उनका सारा मनसूबा व्‍यर्थ कर दिया। उन्‍होंने उन सभी प्रासों और शक्‍तियों को बीच से ही काटकर बड़े जोर से गर्जना की। साथ ही विजय की अभिलाषा लेकर आक्रमण करने वाले उन सैन्‍धव योद्धाओं के मस्‍तकों को वे झुकी हुई गांठ वाले भल्‍लों द्वारा काट–काट कर गिराने लगे।[3]

साथ ही विजय की अभिलाषा लेकर आक्रमण करने वाले उन सैन्‍धव योद्धाओं के मस्‍तकों को वे झुकी हुई गांठ वाले भल्‍लों द्वारा काट–काट कर गिराने लगे। उनमें से कुछ लोग भागने लगे, कुछ लोग फिर से धावा करने लगे और कुछ लोग युद्ध से निवृत्त होने लगे। उन सबका कोलाहल जल से भरे हुए महासागर की गम्‍भीर गर्जना के समान हो रहा था। अमित तेजस्‍वी अर्जुन के द्वारा मारे जाने पर भी सैन्‍धव योद्धा बल और उत्‍साहपूर्वक उनके साथ जूझते ही रहे। थोड़ी ही देर में अर्जुन ने युद्ध स्‍थल में झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा अधिकांश सैन्‍धव वीरों को संज्ञा शून्‍य कर दिया। उनके वाहन और सैनिक भी थकावट से खिन्‍न हो रहे थे।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 77 श्लोक 1-18
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 77 श्लोक 19-32
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 78 श्लोक 1-17
  4. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 78 श्लोक 18-35

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