अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना

महाभारत आदि पर्व के ‘हरणा हरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 220 के अनुसार अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुँचना का वर्णन इस प्रकार है[1]-

नगर की सड़कें झाड़-बुहार कर साफ की गयीं थी। उनके ऊपर जल का छिड़काव किया गया था। स्थान-स्थान पर फूलों के गजरों से नगर की सजावट की गयी थी। शीतल चन्दन, रस तथा अन्य पवित्र सुगन्धित पदार्थों की सुवास सब ओर छा रही थी। जगह-जगह जलते हुए अंगुर की सुगन्ध फैल रही थी, सारा नगर हष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरा था। कितने ही व्यापारी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। महाबाहु पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने बलराम जी तथा वृष्णि, अन्धक एवं भोजवंशी वीरों के साथ नगर में प्रवेश किया। पुरवासी मनुष्यों तथा सहस्रों ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित हो उन्होंने राजभवन के भीतर प्रवेश किया। वह घर इन्द्रभवन की शोभा को भी तिरस्कृत कर रहा था। युधिष्ठिर जी बलराम जी के साथ विधिपूर्वक मिले और श्रीकृष्ण का मस्तक सूँघकर उन्हें दोनों भुजाओं में कस लिया। भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर विनीत भाव से युधिष्ठिर का सम्मान किया। नरश्रेष्ठ भीमसेन का भी उन्होंने विधिवत पूजन किया। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने वृष्णि और अन्धकवंश के श्रेष्ठ पुरुषों का विधिपूर्वक यथायोग्य स्वागत-सत्कार किया। कुछ लोगों का उन्होंने गुरु की भाँति पूजन किया, कितनों का समवयस्क मित्रों की भाँति गले से लगाया, कुछ लोगों से प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया और कुछ लोगों ने उन्हीं को प्रणाम किया। महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने वधू तथा वरपक्ष के लोगों के लिये उत्तम धन अर्पित किया। घर के कुटुम्बीजनों को देने योग्य दहेज पहले नहीं दिया गया था, उसी की पूर्ति उन्होंने इस समय की। किंकिणी और झालरों से सुशोभित सुवर्णस्वचित एक हजार रथ जिनमें से प्रत्येक में चार-चार घोडे़ जुते हुए थे और प्रत्येक में पूर्ण शिक्षित चतुर सारथि बैठा हुआ था, श्रीमान कृष्ण ने समर्पित किये तथा मथुरा मण्डल की पवित्र तेज वाली दस हजार दुधारू गौएँ दीं। चन्द्रमा के समान श्वेत कान्तिवाली विशुद्ध जाति की एक हजार सुवर्णभूषित घोड़ियाँ भी जनार्दन ने प्रेमपूर्वक भेंट कीं। इसी प्रकार पाँच सौ काले अयालवाली और पाँच सौ सफेद रंगवाली खच्चरियाँ समर्पित कीं, जो सभी वश में की हुई तथा वायु के समान वेगशाली थीं। स्नान, पान और उत्सव में जिनका उपयोग किया गया था, जो वयःप्राप्त थीं, जिनके वेष सुन्दर और कान्ति मनोहर थी, जिन्होंने सोने के सौ-सौ मणियों की कण्ठियाँ पहन रखी थीं, जिनके शरीर में रोमावलियाँ नहीं प्रकट हुई थीं, जो वस्त्राभूषणों से अलंकृत तथा सेवा के काम में पूर्ण दक्ष थीं, ऐसी एक हजार गौरवर्णा कन्याएँ भी कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने भेंट कीं। जनार्दन ने उत्तम दहेज के रूप में बाह्लीक देश के एक लाख घोड़े दिये, जो पीठ पर सवारी ढ़ोने वाले थे।

दशार्हवंश के रत्न भगवान श्रीकृष्ण ने अग्नि के समान देदीप्यमान कृत्रिम सुवर्ण (मोहर) और अकृत्रिम विशुद्ध सुवर्ण के (डले) दस भार उपहार में दिये। जिन्हें साहस का काम प्रिय है और जो हाथ में हल धारण करते हैं, उन बलराम ने प्रसन्न होकर इस नूतन सम्बन्ध का आदर करते हुए अर्जुन को पाणिग्रहण के दहेज के रूप में एक हजार मतवाले हाथी भेंट किये, जो तीन अंगों से मद की धारा बहाने वाले थे। वे हाथी युद्ध में कभी पीछे नहीं हटते थे और देखने में पर्वतशिखर के समान जान पड़ते थे। उनके मस्तकों पर सुन्दर वेष रचना की गयी थी। उन सब के पार्श्वभाग में मजबूत घण्टे लटक रहे थे तथा गले में सोने के हार शोभा दे रहे थे। वे सभी हाथी बड़े सुन्दर लगते थे और उन सबके साथ महावत थे।[1] जैसे नदियों के जल का महान प्रवाह समुद्र में मिलता है, उसी प्रकार वह महान धन और रत्नों का भारी प्रवाह, जिसमें वस्त्र और कम्बल फेन के समान जान पड़ते थे, बड़े-बड़े़ हाथी महान ग्राहों का भ्रम उत्पन्न करते थे और जहाँ ध्वजा-पताकाएँ सेवार का काम कर रही थीं, पाण्डवरूपी महासागर में जा मिला। यद्यपि पाण्डव समुद्र पहले से ही परिपूर्ण था तथापि इस महान धनप्रवाह ने उसे और भी पूर्णतर बना दिया। यही कारण था कि वह पाण्डव महासागर शत्रुओं के लिये शोकदायक प्रतीत होने लगा। धर्मराज युधिष्ठिर ने यह सारा धन ग्रहण किया और वृष्णि और अन्धक वंश के उन सभी महारथियों का भलीभाँति आदर सत्कार किया। जैसे पुण्यात्मा मनुष्य देवलोक में सुख भोगते हैं, उसी प्रकार कुरु, वृष्णि और अन्धक वंश के श्रेष्ठ महात्मा पुरुष एकत्र होकर इच्छानुसार विहार करने लगे। वे कौरव और वृष्णिवंश के वीर जहाँ-तहाँ वीणा की उत्तम ध्वनि के साथ गाते-बजाते और संगीत का आनन्द लेते हुए यथावसर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार विहार करने लगे। इस प्रकार के उत्तम पराक्रमी यदुवंशी बहुत दिनों तक इन्द्रप्रस्थ में विहार करते हुए कौरवों से सम्मानित हो फिर द्वारका चले गये। वृष्णि और अन्धक वंश के महारथी कुरुप्रवर पाण्डवों के दिये हुए उज्ज्वल रत्नों की भेंट ले बलराम जी को आगे करके चले गये। जनमेजय! परंतु भगवान वासुदेव महात्मा अर्जुन के साथ रमणीय इन्द्रप्रस्थ में ही ठहर गये। महायशस्वी श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ शिकार खेलते और जंगली वराहों तथा हिंस्र पशुओं का वध करते हुए यमुना जी के तट पर विचरते थे। इस प्रकार वे किरीटधारी अर्जुन के साथ विहार करते थ। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् श्रीकृष्ण की प्यारी बहिन सुभद्रा ने यशस्वी सौभद्र को जन्म दिया; ठीक, वैसे ही, जैसे शची ने जयन्त को उत्पन्न किया था। सुभद्रा ने वीरवर नरश्रेष्ठ अभिमन्यु को उत्पन्न किया, जिसकी बड़ी-बड़ी बाँहें, विशाल वक्षःस्थल और बैलों के समान विशाल नेत्र थे। वह शत्रुओं का दमन करने वाला था। वह अभि (निर्भय) एवं मन्युमान (क्रुद्ध होकर लड़ने वाला) था, इसीलिये पुरुषोत्तम अर्जुन कुमार को ‘अभिमन्यु’ कहते हैं। जैसे यज्ञ में मन्थन करने पर शमी के गर्भ से उत्पन्न अश्वत्थामा से अग्नि प्रकट होती है, उसी प्रकार अर्जुन के द्वारा सुभद्रा के गर्भ से उस अतिरथी वीर का प्रादुर्भाव हुआ था।

भारत! उसके जन्म लेने पर महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को दस हजार गौएँ तथा बहुत सी स्वर्ण मुद्राएँ दान में दीं। जैसे समस्त पितरों और प्रजाओं को चन्द्रमा प्रिय लगते हैं, उसी प्रकार अभिमन्यु बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण का अत्यन्त प्रिय हो गया था। श्रीकृष्ण ने जन्म से ही उसके लालन-पालन की सुन्दर व्यवस्थाएँ की थीं। बालक अभिमन्यु शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिनों-दिन बढ़ने लगा। उस शत्रुदमन बालक ने वेदों का ज्ञान प्राप्त करके अपने पिता अर्जुन से चार पदों[2] और दर्शविध[3] अंगो से युक्त दिव्य एवं मानुष[4] सब प्रकार के धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया। अस्त्रों के विज्ञान, सौष्ठव (प्रयोगपटुता) तथा सम्पूर्ण क्रियाओं में भी महाबली अर्जुन ने उसे विशेष शिक्षा दी थी।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 220 श्लोक 36-55
  2. धनुर्वेद में निम्नांकित चार पाद बताये गये हैं - मन्त्रमुक्त, पाणिमुक्त, मुक्तामुक्त और अमुक्त। जैसा कि वचन है - जिसका मन्त्र द्वारा केवल प्रयोग होता है, उपसंहार नहीं, उसे मन्त्रमुक्त कहते हैं। जिसे हाथ में लेकर धनुष द्वारा छोड़ा जाय, वह बाण आदि पाणिुक्त कहा गया है। जिसके प्रयोग और उपसंहार दोनों हों वह मुक्तामुक्त है। जो वस्तुतः छोड़ा नहीं जाता, वैसे मन्त्र द्वारा साधित (ध्वजा आदि) है, जिसको देखने मात्र से शत्रु भाग जाते हैं, वह अमुक्त कहलाता है। ये अथवा सूत्र, शिक्षा, प्रयोग तथा रहस्य - ये ही धनुर्वेद के चार पाद है।
  3. आदान, संधान, मोक्षण, निवर्तन, स्थान, मुष्टि, प्रयोग, प्रायश्चित, मण्डल तथा रहस्य - धनुर्वेद के दस अंग है। यथा - ‘तरकस से बाण को निकालना आदान है। उसे धनुष की प्रत्यन्चा पर रखना संधान है, लक्ष्य पर छोड़ना मोक्षण कहा गया है। यदि बाण छोड़ देने के बाद यह मालूम हो जाय कि हमारा विपक्षी निर्बल या शस्त्रहीन है, तो वीर पुरुष मन्त्रशक्ति से उस बाण को लौटा लेते है। इस प्रकार छोड हुए अस्त्र को लौटा लेना विनिवर्तन कहलाता है। धनुष या उसकी प्रत्यन्चा के धारण अथवा शरसंधानकाल में धनुष और प्रत्यन्चा के मध्यदेश को स्थान कहा गया है। तीन या चार अँगुलियों का सहयोग ही मुष्टि है। तर्जनी और मध्यमा अंगुली के अथवा मध्यमा और अंगुष्ठ के मध्य से बाण का संधान करना प्रयोग कहलाता है। स्वतः या दूसरे से प्राप्त होने वाले ज्याघात (प्रत्यन्चा के आधात) और बाण के आघात को रोकने के लिये जो दस्तानों आदि का प्रयोग किया जाता है, उसका नाम प्रायश्चित्त है। चक्राकार घूमते हुए रथ के साथ-साथ घूमने वाले लक्ष्य का वेध मण्डल कहलाता है। शब्द के आधार पर लक्ष्य बींधना अथवा एक ही समय अनेक लक्ष्यों को बींध डालना, ये सब रहस्य के अन्तर्गत है।
  4. ब्रह्मास्त्र आदि को दिव्य और खड्ग आदि को मानुष कहा गया है।
  5. महाभारत आदि पर्व अध्याय 220 श्लोक 56-73

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
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अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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