विरह-पदावली -सूरदास
राग कान्हरौ (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) अब वे (श्याम) राजा हो गये हैं, अतः उन्हें अब हमारा वह (प्रेम) स्मरण क्यों होगा? वे अपने स्वार्थवश हमसे दस दिन (अल्प समय) प्रेम किये रहे, जो अपना काम बनाने के लिये (ही) था। जैसे व्याध के बजाये कपटपूर्ण संगीत से मृग मुग्ध होते हैं, वैसे ही हम सब उनकी वंशीध्वनि सुनकर अनजान हो गयी थीं। किंतु अब मन समुद्र के (उस) पक्षी के समान थकित (विमुग्ध) हो गया है, जो बार-बार जहाज की ही शरण लेता है (बार-बार मनमोहन का ही आश्रय करता है)। जिस दिन वे अक्रूर के साथ भाग गये, उसी दिन से वह (प्रेम का) सम्बन्ध टूट गया; किंतु हमारे स्वामी अब गोपीनाथ कहलाकर हमें लज्जा से क्यों मारते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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