विरह-पदावली -सूरदास
(269) (कोई गोपी कह रही है- ‘सखी!) अब इस शरीर को रखकर क्या करूँगी? अरी सुन! श्यामसुन्दर के बिना अब हम परस्पर बाँटकर क्यों न दारुण विष पी लें। अथवा सखी! सुन, पर्वत पर चढ़कर भृगु-पतन कर लें, (रावण की तरह) शंकरजी को अपने मस्तक (काटकर) अर्पित कर दें, अथवा भयानक दावाग्नि में जल जायँ या फिर जाकर यमुना में कूद पड़ें। माधव के असह्य वियोगरूप विरह की इस पीड़ा में कौन दिनों-दिन क्षीण होता रहे।’ सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार श्रीराधा अपने प्रियतम श्यामसुन्दर का बार-बार चिन्तन करती हुई हाथ मलती (पश्चाताप) करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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