विरह-पदावली -सूरदास
(203) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) अब वर्षा-ऋतु के लक्षण प्रकट हो गये हैं; किंतु नन्दनन्दन ऐसे निष्ठुर हो गये हैं कि उन्होंने संदेश भी नहीं भेजा। चारों ओर से घनघोर घटाएँ उठ रही हैं, मेघों की गर्जना सुनायी पड़ती हैं; (किंतु) मेरे मन में एक ही वेदना रह गयी है कि (मोहन) फिर व्रज में नहीं पधारे। मेढ़क, मयूर और पपीहा बोल रहे हैं और कोकिल भी (अपना-पी कहाँ, पी कहाँ) बोल सुनाती है। अतएव स्वामी से (कोई) कहना कि नेत्रों ने यहाँ झड़ी लगा दी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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