अनेक प्रकार के दानों की महिमा

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में अनेक प्रकार के दानों की महिमा का वर्णन हुआ है।[1]

वैशम्पायन-जनमेजय संवाद

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– जनमेजय! भगवान श्रीकृष्‍ण के द्वारा क्रम से दान और धर्म की बात कही जाने पर युधिष्‍ठिर तृप्‍त न होकर फिर भगवान केशव से कहने लगे- ‘सुरश्रेष्‍ठ! देवेश्‍वर! परंतप माधव! आपके मुँह से इस धर्ममय अमृत का श्रवण करते हुए मुझे तृप्‍ति नहीं होती है। ‘सुरश्रेष्‍ठ! जो अन्‍य प्रकार के दान हैं, जिनको अभी तक आपने नहीं बताया है, उनका वर्णन कीजिये और क्रमश: उनका फल भी बताने की कृपा कीजिये।’

श्रीभगवान ने कहा– पाण्‍डुनन्‍दन! जो मनुष्‍य भक्‍ति के साथ वस्‍त्र, माला और चंदन चढ़ाकर ब्राह्मण की पूजा करता है तथा उसे भाँति– भाँति के अन्‍न का भोजन कराकर बिछौने सहित शैय्या दान करता है, उसका पुण्‍य फल सुनो। पाण्‍डुनन्‍दन! विधिवत किये हुए गोदान का जो पुण्‍य होता है, उस पुण्‍य को प्राप्‍त करके वह पितृ लोक में सम्‍मान पाता है। तथा एक हजार अग्‍निहोत्री ब्राह्मणों का पूजन करने से जो फल मिलता है, उसी पुण्‍य– फल को वह प्राप्‍त करता है, जो शय्या का दान करता है। जो मनुष्‍य ब्राह्मण को शिल्‍प, वेद, मन्‍त्र, ओषधि आदि विद्याओं का दान करता है, उसके पुण्‍य फल को सुनो।

अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा पुण्‍य प्राप्ति

वह वेद मन्‍त्रों के बल से चलने वाले सुन्‍दर विमान पर आरूढ़ हो सप्‍तर्षियों के लोक में जाता और वहाँ ब्रह्मवादी महर्षियों से पूजित होता है। उस लोक में तीस चतुर्युगी तक देवताओं की भाँति क्रीड़ा करके वह मनुष्‍य लोक में वेदवेत्ता ब्राह्मण होता है। राजन! जो रास्‍ते के थके– मांदे दुर्बल ब्राह्मण को विश्राम देता है, उसका एक वर्ष का किया हुआ पाप तत्‍काल नष्‍ट हो जाता है। तदनन्‍तर जब वह भक्‍ति पूर्वक उस अतिथि के दोनों चरणों को जल से पखारता है, उस समय उसके दस वर्ष के किये हुए पाप नि:संदेह नष्‍ट हो जाते हैं। तथा यदि वह उसके दोनों पैरों में घी या तेल मलकर उसकी पूजा करता है तो उसके बारह वर्षों के पाप तुरंत नष्‍ट हो जाते हैं। राजन! जो घर पर आये हुए ब्राह्मण का स्‍वागत करके उसे आसन और अभ्‍युत्‍थान देकर पूजन करता है, वह देवताओं का प्रिय होता है।

महाराज! अतिथि के स्‍वागत से अग्‍नि, उसे आसन देने से इन्‍द्र और अगवानी करने से अतिथियों पर प्रेम रखने वाले पितर प्रसन्‍न होते हैं। नरेश्‍वर! इस प्रकार अग्‍नि, इन्‍द्र और पितरों के प्रसन्‍न होने पर मनुष्‍य का एक वर्ष का पाप तत्‍काल नष्‍ट हो जाता है। जो मनुष्‍य ब्राह्मण को मालाओं से विभूषित आसन प्रदान करता है, वह मणियों से चित्रित रथ के द्वारा इन्‍द्र लोक में जाता है। वहाँ इन्‍द्रासन पर दिव्‍य स्‍त्रियों के साथ शोभा पाता है और साठ हजार वर्षों तक अप्‍सरागणों के साथ क्रीड़ा करता है। युधिष्ठिर! जो मनुष्‍य ब्राह्मण को सवारी दान करता है, वह रत्‍नों से चित्रित विमान पर बैठकर स्‍वर्गलोक को जाता है।[1]

राजन! वहाँ वह अप्‍सरागणों के द्वारा सेवित होकर इच्‍छानुसार क्रीड़ा करता है। फिर इस लोक में राजा होता है– इसमें कोई विचार की बात नहीं है। जो पुरुष पत्‍ते, फूल और फलों से भरे हुए वृक्षों को वस्‍त्रों और आभूषणों से विभूषित करके चंदन और फूलों से उसकी पूजा करता है तथा वेदवेत्ता ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा के साथ उस वृक्ष का दान कर देता है, उसके पुण्‍य का फल सुनो। वह सुवर्णजटित सुन्‍दर विमान पर बैठकर जय– जयकार के शब्‍द सुनता हुआ इन्‍द्रलोक में जाता है।

वहाँ रमणीय इन्‍द्र नगरी में उसके मन में जो– जो इच्‍छाएँ होती हैं, उन सब अभीष्‍ट वस्‍तुओं को कल्‍पवृक्ष देता है। दान में दिये हुए वृक्ष जितने पत्ते, फूल और फल होते हैं, उतने ही हजार वर्षों तक वह इन्‍द्र लोक में महिमा पाता है। इन्‍द्र लोक से उतरकर जब वह मनुष्‍य लोक में जाता है, तब रथ, घोड़े और हाथियों से पूर्ण नगर में राज्‍य की रक्षा करता है। जो पुरुष भक्‍तिपूर्वक मन्‍दिर बनवाकर उसमें मेरी प्रतिमा की विधिपूर्वक स्‍थापना करता है और दूसरे से उसकी पूजा करवाता है या स्‍वयं भक्‍ति के साथ पूजा करता है, उसके पुण्‍य का फल सुनो। एक हजार अश्‍वमेध यज्ञ का जो पुण्‍य बताया गया है, उस फल को पाकर वह मेरे परमधाम को पधारता है।

युधिष्‍ठिर! मैं जानता हूँ, वह वहाँ से कभी लौटकर इस लोक में नहीं आता। जो मनुष्‍य देव मन्‍दिर में, ब्राह्मण के घर में, गोशाला में और चौराहे पर दीपक जलाता है, उसके पुण्‍य फल को सुनो। वह सुवर्णमय विमान पर बैठकर सम्‍पूर्ण दिशाओं को देदीप्‍यमान करता हुआ सूर्यलोक का जाता है, उस समय श्रेष्‍ठ देवता उसकी सेवा में उपस्‍थित रहते हैं। वह महातपस्‍वी पुरुष करोड़ों वर्षों तक सूर्यलोक में यथेष्‍ट विहार करने के पश्‍चात मर्त्‍यलोक में आकर वेद वेदांगों में पारंगत ब्राह्मण होता है। जो मनुष्‍य ब्राह्मण को करका (कमण्‍डलु), कर्णिका (गिलास) अथवा महान जलपात्र दान करता है, उसका पुण्‍यफल सुनो।

अनेक प्रकार के दानों का वर्णन

जनेश्‍वर! पंचगव्‍य पीने वाले मनुष्‍य के लिये जो फल बताया गया है, उस फल को वह जलपात्र दान करने वाला मनुष्‍य पाता है। वह सदा तृप्‍त रहता है। उसे सब प्रकार के सुगन्‍धित पदार्थ सुलभ होते हैं तथा उसकी इन्‍द्रियां और मन सदा प्रसन्‍न रहते हैं। इतना ही नहीं, वह हंस और सारसों से जुते हुए सुन्‍दर विमान पर बैठकर दिव्‍य गन्‍धर्वों से सेवित वरुण लोक में जाता है। जो गर्मी के तीन महीनों में जीवों के जीवनभूत जल का दान करता है, उसके पुण्‍य का फल सुनो। वह पूर्ण चन्‍द्रमा के समान प्रकाशमान सुन्‍दर विमान पर आरूढ़ होकर अप्‍सरागणों से सेवित हुआ इन्‍द्र भवन की यात्रा करता है। सिर में लगाने के लिये तेल– दान करने से मनुष्‍य तेजस्‍वी, दर्शनीय, सुन्‍दर, रूपवान, शूरवीर और पण्‍डित ब्राह्मण होता है। वस्‍त्र-दान करने वाला पुरुष भी तेजस्‍वी, दर्शनीय, सुन्‍दर, श्रीसम्‍पन्‍न और सदा स्‍त्रियों के लिये मनोरम होता है। जो उत्तम पुरुष जूता और छाता दान करता है, वह महान तेज से सम्‍पन्‍न हो सोने के बने हुए सुन्‍दर रथ पर बैठकर अप्‍सरागणों से सेवित हुआ इन्‍द्रलोक में जाता है।[2]

जो काठ की खड़ाऊं दान करते हैं, वे काष्‍ठ निर्मित विमानों पर आरूढ़ होकर श्रेष्‍ठ देवताओं से सेवित हो धर्मराज के रमणीय नगर में प्रवेश करते हैं। दाँतन का दान करने से मनुष्‍य मधुर भाषी होता है। उसके मुंह से सुगन्‍ध निकलती रहती है तथा वह लक्ष्‍मीवान एवं बुद्धि और सौभाग्‍य से सम्‍पन्‍न होता है। जो मनुष्‍य अतिथि और कुटुम्‍बीजनों को भोजन करा लेने के पश्‍चात स्‍वयं भोजन करता है, सदा व्रत का पालन करता है, सत्‍य बोलता है, क्रोध से दूर रहता है तथा स्‍नान आदि द्वारा सर्वदा पवित्र रहता है, दिव्‍य विमान के द्वारा इन्‍द्रलोक की यात्रा करता है। जो एक वर्ष तक प्रतिदिन एक वक्‍त भोजन करता है, ब्रह्मचर्य का पालन करता है, क्रोध को काबू में रखता है तथा सत्‍य और शौच का पालन करता है, वह दिव्‍य विमान में बैठकर इन्‍द्रलोक में पदार्पण करता है।

जो एक वर्ष तक चौथे वक्‍त अर्थात प्रति दूसरे दिन भोजन करता है, ब्रह्मचर्य का पालन करता है, और इन्‍द्रियों को काबू में रखता है, उसके पुण्‍य का फल सुनो। वह मनुष्‍य विचित्र पंखवाले मोरों से जुते हुए अद्भुत ध्‍वज से शोभायमान दिव्‍य विमान पर आरूढ़ हो महेन्‍द्रलोक में गमन करता है। राजन! जो मनुष्‍य पवित्र और मेरे परायण होकर मेरे श्रीविग्रह में मन लगाता (मेरा ध्‍यान करता) है तथा विशेषत: चतुर्दशी के दिन रुद्र अथवा दक्षिणा मूर्ति में चित्त एकाग्र करता है, वह महान तपस्‍वी पुरुष सिद्धों, ब्रह्मर्षियों और देवताओं से पूजित होकर गन्‍धर्वों और भूतों का गान सुनता हुआ मुझ में या शंकर में प्रवेश कर जाता है तथा उसका इस संसार में फिर जन्‍म नहीं होता– इसमें कोई विचार की बात नहीं है। राजेन्‍द्र! जो मनुष्‍य गौ, स्‍त्री, गुरु और ब्राह्मण की रक्षा के लिये प्राण दे डालते हैं, वे इन्‍द्रलोक में जाते हैं।

वहाँ इच्‍छानुसार विचरने वाले सुवर्ण के बने हुए विमान पर रहकर दिव्‍य नारियों से सेवित हुए एक मन्‍वन्‍तर तक आनन्‍द का अनुभव करते हैं। देने की प्रतिज्ञा की हुई वस्‍तु को दान न देने से अथवा दी हुई वस्‍तु को छीन लेने से जन्‍म भर का किया हुआ सारा दान– पुण्‍य नष्‍ट हो जाता है। अक्षय सुख चाहने वाले मनुष्‍य को चाहिये कि जो– जो न्‍याय से उपार्जित किया हुआ अत्‍यन्‍त अभीष्‍ट द्रव्‍य है, वह– वह गुणवान ब्राह्मण को दान में दे।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-25
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-26
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-27

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