अध्यात्मज्ञान का निरूपण

महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 194वें अध्याय में अध्यात्मज्ञान के निरूपण का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

अध्यात्मज्ञान का निरूपण

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! शास्त्रों में मनुष्‍य के लिये अध्‍यात्‍म के नाम से जिसका विचार किया जाता है, वह अध्‍यात्‍मज्ञान क्‍या है और कैसा है? यह मुझे बताइये। ब्रह्मन, इस चराचर जगत की सृष्टि किससे हुई है और प्रलयकाल में इसका लय किस प्रकार होता है; इस विषय का मुझसे वर्णन कीजिये।

भीष्‍म जी ने कहा- तात! कुंतीनंदन! तुम जिस अध्‍यात्‍मज्ञान के विषय में पूछ रहे हो, उसकी व्‍याख्‍या मैं तुम्‍हारे लिये करता हूँ, वह परम कल्‍याणकारी और सुखस्‍वरूप है। आचार्यों ने सृष्टि और प्रलय की व्‍याख्‍या के साथ अध्‍यात्‍मज्ञान का विवेचन किया है, जिसे जानकार मनुष्‍य इस संसार में सुख और प्रसन्‍नता का भागी होता है। उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति भी होती है। वह अध्‍यात्‍मज्ञान समस्‍त प्राणियों के लिये हितकर है। पृथ्‍वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि- ये पाँच महाभूत सम्‍पूर्ण प्राणियों की उत्‍पत्ति और प्रलय के स्‍थान है। जैसे लहरें समुद्र से प्रकट होकर फिर उसी में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ये पाँच महाभूत भी जिस परमात्मा से उत्पन्न हुए है, उसी में सब प्राणियों के सहित बारंबार लीन होते हैं। जैसे कछुआ अपने अंगों को फैलाकर पुन: समेट लेता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों के आत्मा परब्रह्म परमेश्‍वर अपने रचे हुए सम्पूर्ण भूतों को फैलाकर फिर अपने भीतर ही समेट लेते हैं। सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि करने वाले परमात्मा ने सब प्राणियों के शरीर में पाँच ही महाभूतों को स्थापित किया है; परंतु उनमें विषमता कर दी है- किसी महाभूत के अंश को अधिक और किसी के अंश को कम करके रखा है। उस वैषम्य को साधारण जीव नहीं देख पाता। शब्‍दगुण, श्रोत्र इन्द्रिय और शरीर के सम्पूर्ण छिद्र- ये तीन आकाश के कार्य हैं। स्पर्श, चेष्टा और त्वगिन्द्रिय- ये तीन वायु के कार्य माने गये हैं। रूप, नेत्र और परिपाक- ये तीन तेज के कार्य बताये जाते हैं। रस, जिहृा तथा क्लेद (गीलापन)- ये तीन जल के गुण अर्थात कार्य माने गये हैं। गन्ध, घ्राणेन्द्रिय और शरीर- ये तीन भूमि के गुण अर्थात कार्य हैं। इस प्रकार इस शरीर में पाँच महाभूत और छठा मन है; ऐसा बताया जाता है। भरतनन्दन! श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियां और मन- ये जीवात्मा को विषयों का ज्ञान कराने वाले हैं। शरीर में इन छ: के अतिरिक्‍त सातवीं बुद्धि और आठवाँ क्षेत्रज्ञ है। इन्द्रियां विषयों को ग्रहण कराती हैं। मन संकल्प-विकल्प करता है। बुद्धि निश्‍चय कराने वाली है और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) साक्षी की भाँति स्थित रहता है। दोनों पैरों के तलों से लेकर ऊपर तक जो शरीर स्थित है, उसे जो साक्षीभूत चेतन ऊपर-नीचे सब ओर से देखता है, वह इस सारे शरीर के भीतर और बाहर सब जगह व्याप्त है। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो।

बुद्धि की सम्पूर्ण गति का विवेचन

सभी मनुष्‍यों को अपनी इन्द्रियों (और मन-बुद्धि) की देख-भाल करके उनके विषय में पूरी जानकारी रखनी चाहिये; क्योंकि सत्त्‍व, रज और तम- ये तीनों गुण उन्हीं का आश्रय ले‍कर रहते हैं। मनुष्‍य अपनी बुद्धि के बल से इन सबको और जीवों के आवागमन की अवस्था को जानकर शनै:-शनै: उस पर विचार करने से उत्तम शान्ति पा जाता है।[1] तम आदि गुण बुद्धि को बारंबार विषयों की ओर ले जाते है; तथा बुद्धि के साथ-साथ मनसहित पाँचों इन्द्रियों को और उनकी समस्त वृत्तियों को भी ले जाते हैं। उस बुद्धि के अभाव में गुण कैसे रह सकते हैं? यह चराचर जगत बुद्धि के उदय होने पर ही उत्पन्न होता है और उसके लय के साथ लीन हो जाता है; इसलिये यह सारा प्रपंच बुद्धिमय ही है; अत: श्रुति ने सबकी बुद्धिरूपता का ही निर्देश किया है। बुद्धि जिसके द्वारा देखती है, उसे नेत्र और जिसके द्वारा सुनती है, उसे श्रोत्र क‍हते हैं। इसी प्रकार जिससे वह सूँघती है, उसे घ्राण कहा गया है, वही जिहृा के द्वारा रस का अनुभव करती है। बुद्धि त्वचा से स्पर्श का बोध प्राप्‍त कराती है। इस प्रकार वह बांरबार विकार को प्राप्‍त होती रहती है। वह जिस करण के द्वारा जिसका अनुभव करना चाहती है, मन उसी का रूप धारण कर लेता है। भिन्न-भिन्न विषयों को ग्रहण करने के लिये जो बुद्धि के पाँच अधिष्ठान हैं, उन्हीं को पाँच इन्द्रियां कहते हैं। अदृश्‍य जीवात्मा उन सबका अधिष्ठाता (प्रेरक) है। जीवात्मा के आश्रित रहकर बुद्धि (सुख, दु:ख और मोह) तीन भावों में स्थित होती है। वह कभी तो प्रसन्नता का अनुभव करती है, कभी शोक में डूबी रहती है और कभी सुख और दु:ख दोनों के अनुभव से रहित मोहाच्छन्न हो जाती है। इस प्रकार वह मनुष्‍यों के मन के भीतर तीन भावों में अवस्थित है, यह भावात्मिका बुद्धि (समाधि-अवस्था में) सुख, दु:ख और मोह- इन तीनों भावों को लाँघ जाती है। ठीक उसी तरह जैसे सरिताओं का स्वामी समु्द्र उत्ताल तंरगों से संयुक्‍त हो अपनी विशाल तटभूमि को भी कभी-कभी लाँघ जाता है। उपर्युक्‍त भावों को लाँघ जाने पर भी बुद्धि भावात्मक मन में सूक्ष्‍मरूप से स्थित रहती है। तत्पश्‍चात समाधि से उत्थान के समय प्रवृत्त्‍यात्मक रजोगुण बुद्धिभाव का अनुसरण करता है। उस समय रजोगुण से युक्‍त हुई बुद्धि सारी इन्द्रियों को प्रवृत्ति में लगा देती है। तदनन्तर विषयों के सम्बन्ध से प्रीतिरूप सत्त्‍वगुण प्रकट होता है। उसके बाद पुरुष के आसक्ति आदि दोषों से तमोमय भाव का उदय होता है। प्रसन्नता या हर्ष सत्त्‍वगुण का कार्य है, शोक रजोगुण रूप है और मोह तमोगुण रूप। इस संसार में जो-जो भाव हैं, वे सब इन्हीं तीनों के अन्तर्गत हैं। भारत! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष बुद्धि की सम्पूर्ण गति का विशद विवेचन किया है।[2]

बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को काबू में रखे। भारत! सत्त्‍व, रज और तम- ये तीन गुण सदा ही प्राणियों में स्थित रहते हैं और इनके कारण उन सब जीवों में सात्त्विकी, राजसी और तामसी- यह तीन प्रकार की अनुभूति देखी जाती है। सत्त्‍वगुण सुख की अनुभूति कराने वाला है, रजोगुण दु:ख की प्राप्ति कराता है और जब वे दोनों तमोगुण (मोह)– से संयुक्त होते हैं, तब व्यवहार के विषय नहीं रह जाते। जब शरीर या मन में किसी प्रकार से भी प्रसन्नता का भाव हो, तब यह कहना चाहिये कि सात्त्विक भाव का उदय हुआ है।[2] जब अपने मन में दु:ख से युक्‍त अप्रसन्नता का भाव जाग्रत हो, तब यह समझना चाहिये कि रजोगुण की प्रवृत्ति हुई है। अत: उस दु:ख को पाकर मन में चिन्ता न करे (क्योंकि चिन्ता से दु:ख और बढ़ता है)। जब मन में कोई मोहयुक्‍त भाव पैदा हो और किसी भी इन्द्रिय का विषय स्पष्ट जान न पड़े, उसके विषय में कोई तर्क भी काम न करे और वह किसी तरह समझ में न आवे, तब यही निश्‍चय करना चाहिये कि तमोगुण की वृद्धि हुई है। जब मन में किसी प्रकार भी अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, सुख और शान्ति का अनुभव हो रहा हो, तब इन गुणों को सात्त्विक समझना चाहिये। जिस समय किसी कारण से या बिना कारण ही अंसतोष, शोक, संताप, लोभ ओर असहनशीलता के भाव दिखायी दें तो उन्हें रजोगुण का चिह्न जानना चाहिये। इसी प्रकार जब अपमान, मोह, प्रमाद, स्वप्न, निद्रा और आलस्य आदि दोष किसी तरह भी घेरते हों तो उन्हें तमोगुण के ही विविध रूप समझे।[3]

जिसका दूर तक दौड़ लगाने वाला और अनेक विषयों की ओर जाने वाला कामनायुक्त संशयात्मक मन अच्छी तरह वश में हो जाता है, वह मनुष्‍य इहलोक में तथा मरने के बाद परलोक में भी सुखी होता है। बुद्धि और आत्मा- ये दोनों ही सूक्ष्‍म तत्त्‍व हैं तथापि इनमें बड़ा भारी अन्तर है। तुम इस अन्तर पर दृष्टिपात करो। इनमें बुद्धि तो गुणों की सृष्टि करती है और आत्मा गुणों की सृष्टि से अलग रहता है। जैसे गूलर का फल और उसके भीतर रहने वाले कीड़े एक साथ रहते हुए भी एक-दूसरे से अलग हैं, उसी प्रकार बुद्धि और आत्‍मा दोनों का एक साथ रहना और भिन्‍न-भिन्‍न होना समझना चाहिये। ये दोनों स्‍वभाव से ही अलग-अलग हैं तो भी सदा एक-दूसरे से मिले रहते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे मछली और जल एक-दूसरे से पृथक होकर भी परस्‍पर संयुक्‍त रहते हैं। यही स्थिति बुद्धि और आत्‍मा की भी है। सत्त्‍व आदि गुण जड़ होने के कारण आत्‍मा को नहीं जानते; किंतु आत्‍मा चेतन है, इसलिये वह गुणों को सब प्रकार से जानता है। यद्यपि आत्‍मा गुणों का साक्षी है, अत: उनसे सर्वथा भिन्‍न है तो भी वह अपने को उन गुणों से संयुक्‍त मानता है। जैसे घडे़ में रखा हुआ दीपक घडे़ के छेदों से अपना प्रकाश फैलाकर वस्‍तुओं का ज्ञान कराता है, उसी प्रकार परमात्‍मा शरीर के भीतर स्थित होकर चेष्टा और ज्ञान से शून्‍य इन्द्रियों तथा मन-बुद्धि इन सातों के द्वारा सम्‍पूर्ण पदार्थों का अनुभव कराता है। बुद्धि गुणों की सृष्टि करती है और आत्‍मा साक्षी बनकर देखता रहता है। उन बुद्धि और आत्‍मा का यह संयोग अनादि है। बुद्धि का परमात्‍मा के सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं है और क्षेत्रज्ञ का भी कोई दूसरा आश्रय नहीं है। बुद्धि मन से ही घनिष्ठ संबंध रखती है। गुणों के साथ उसका साक्षात सम्‍पर्क कदापि नहीं होता। जब जीव बुद्धिरूपी सारथि और मनरूपी बागडोर-द्वारा इन्द्रियरूपी अश्‍वों की लगाम अच्‍छी तरह काबू में रखता है तब घडे़ में रखे हुए प्रज्‍वलित दीपक के समान अपने भीतर ही उसका आत्‍मा प्रकाशित होने लगता है।[3]

जो सांसारिक कर्मों का परित्‍याग करके सदा अपने–आप में ही अनुरक्‍त रहता है, वह मननशील मुनि सम्‍पूर्ण भूतों का आत्‍मा होकर परम गति को प्राप्‍त होता है। जैसे जलचर पक्षी जल से लिप्‍त नहीं होता, उसी प्रकार विशुद्ध बुद्धि ज्ञानी पुरुष निर्लिप्‍त रहकर ही सम्‍पूर्ण भूतों में विचरता है। यह आत्‍मतत्त्‍व ऐसा ही निर्लिप्‍त एवं शुद्ध–बुद्धिस्‍वरूप है- ऐसा अपनी बुद्धि के द्वारा निश्‍चय करके ज्ञानी पुरुष हर्ष, शोक और मात्‍सर्य दोष से रहित हो सर्वत्र समानभाव रखते हुए विचरे। आत्‍मा अपने स्‍वरूप में स्थित रहकर ही सदा गुणों की सृष्टि करता है। ठीक उसी तरह, जैसे मकड़ी अपने स्‍वरूप में स्थित रहती हुई ही जाला बनाती है। मकड़ी के जाले के ही समान समस्‍त गुणों की सत्ता समझनी चाहिये। आत्‍मसाक्षत हो जाने पर गुण नष्ट हो जाते हैं तो भी सर्वथा निवृत्त नहीं होते हैं; क्‍योंकि उनकी निवृत्ति प्रत्‍यक्ष नहीं देखी जाती है। जो परोक्ष वस्‍तु है उसकी सिद्धि अनुमान से होती है। एक श्रेणी के विद्वानों का ऐसा ही निश्‍चय है। दूसरे लोग यह मानते हैं कि गुणों की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। इन दोनों मतो पर भलीभाँति विचार करके अपनी बुद्धि के अनुसार यथार्थ वस्‍तु का निश्‍चय करना चाहिये। बुद्धि के द्वारा कल्पित हुआ जो भेद है, वही हृदय की सुदृढ़ गाँठ है। उसे खेालकर संश्‍यरहित हो ज्ञानवान पुरुष सुख से रहे, कदापि शोक न करे। जैसे मैले शरीर वाले मनुष्‍य जल से भरी हुई नदी में नहा-धोकर साफ-सुथरे हो जाते हैं, उसी प्रकार इस ज्ञानमयी नदी में अवगाहन करके मलिनचित्त मनुष्‍य भी शुद्ध एवं ज्ञान सम्‍पन्‍न हो जाते हैं- ऐसा जानो। किसी महानदी के पार को जानने वाला पुरुष केवल जानने मात्र से कृतकृत्‍य नहीं होता; जब तक वह नौका आदि के द्वारा वहाँ पहुँच न जाय, तब तक वह चिंता से संतप्‍त ही रहता है। परंतु तत्त्‍वज्ञ पुरुष ज्ञानमात्र से ही संसार-सागर से पार हो जाता है; उसे संताप नहीं होता। क्‍योंकि यह ज्ञान स्‍वयं ही पुलस्‍वरूप।[4]

ज्ञानी पुरुषों के लक्षण

जो मनुष्‍य बुद्धि से जीवों के इस आवागमन पर शनै:-शनै: विचार करके उस विशुद्ध एवं उत्तम आध्‍यात्मिक ज्ञान को प्राप्‍त कर लेता है, वह परम शांति पाता है। जिसे धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों का ठीक-ठीक ज्ञान है, जो खूब सोच-समझकर उनका परित्‍याग कर चुका है और जिसने मन के द्वारा आत्‍म तत्त्व का अनुसंधान करके योगयुक्‍त हो आत्‍मा से भिन्‍न वस्‍तु के लिये उत्‍सुकता का त्‍याग कर दिया है, वही तत्तवदर्शी है। जिन्‍होंने अपने मन को वश में नहीं किया है, वे भिन्‍न-भिन्‍न विषयों की ओर प्रेरित हुई दुर्निवार्य इन्द्रियों द्वारा आत्‍मा का साक्षात्‍कार नहीं कर सकते। यह जानकर मनुष्‍य ज्ञानी हो जाता है। ज्ञानी का इसके सिवा और क्या लक्षण है? क्‍योंकि मनीषी पुरुष उस परमात्‍म तत्त्‍व को जानकर ही अपने को कृतकृत्‍य मानते हैं। अज्ञानियों के लिये जो महान भय का स्‍थान हैं, उसी संसार से ज्ञानी पुरुषों को भय नहीं होता। ज्ञान होने पर सबको एक-सी ही गति (मुक्ति) प्राप्‍त होती है। किसी को उत्‍कृष्ट या निकृष्ट गति नहीं मिलती; क्‍योंकि गुणों का संबंध रहने पर ही उनके तारतम्‍य के अनुसार प्राप्‍त होने वाली गति में भी असमानता बतायी जाती है (ज्ञानी का गुणों से संबंध नहीं रहता।)[4]

जो निष्‍काम भाव से कर्म करता है, उसका वह कर्म पहले के किये हुए समस्त कर्म-संस्कारों का नाश कर देता है। पूर्वजन्म और इस जन्म के किये हुए वे दोनों प्रकार के कर्म उस पुरुष के लिये न तो अप्रिय फल उत्पन्न करते हैं और न तो प्रिय फल के ही जनक होते हैं (क्योंकि कर्तापन के अभिमान और फल की आसक्ति से शून्य होने के कारण उनका उन कर्मों से सम्बन्ध नहीं रह जाता)। जो काम, क्रोध आदि दुर्व्यसनों से आतुर रहता है, उसे विचारवान पुरुष धि‍क्कारते हैं। उसके नि‍न्दनीय कर्म उस आतुर मानव को सभी योनियों (पशु-पक्षी आदि के शरीरों) में जन्म दिलाता है। लोक में भोगासक्ति के कारण आतुर रहने वाले लोग, स्त्री, पुत्र आदि के नाश होने पर उनके लिये बहुत शोक करते और फूट-फूटकर रोते हैं। तुम उनकी इस दुर्दशा को देख लो। साथ ही जो सारासार-विवेक में कुशल हैं और सत्पुरुषों को प्राप्‍त होने वाले दो प्रकार के पद को अर्थात सगुण-उपासना और निर्गुण-उपासना के फल को जानते हैं, वे कभी शोक नहीं करते। उनकी अवस्था पर भी दृष्टिपात कर लो (फिर तुम्हें अपने लिये जो हितकर दिखायी दे, उसी पथ का आश्रय लो)।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 194 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 194 श्लोक 17-31
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 194 श्लोक 32-45
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 194 श्लोक 46-60
  5. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 194 श्लोक 61-63

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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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