विरह-पदावली -सूरदास
(141) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) मेरे नेत्र अत्यन्त रस-लम्पट (सुख के लोभी) हैं, ये सौन्दर्य एवं मधुरिमा के भवन (मोहन के) कमल-सदृश मुख का पान करते हुए तृप्ति (संतोष) नहीं मानते। दिन और रात दृष्टिरूपी जीभ के स्वाद में रत रहने पर भी एक पल के लिये शान्त नहीं होते; किंतु (इनके) छोटे-से हृदयरूप भवन में (वह) सौन्दर्य-सागर कहाँ तक समा सकता है। अब (उसी का) अजीर्ण हो जाने के कारण यह वियोग के अश्रु वमन कर-कर दुःख देने लगा है। (इसके चिकित्सक) वैद्य व्रजनाथ (तो) मथुरा हैं, उन्हें ले आने किसे भेजूँ ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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