अग्निहोत्र के माहात्म्य का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में अग्निहोत्र के माहात्म्य का वर्णन हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण द्वारा अग्निहोत्र के माहात्म्य का वर्णन

निरूपाप! जो वसन्‍त-ऋतु में अग्‍न्‍याधान करता है, उस ब्राह्मण की श्रीवृद्धि होती है तथा उसका वैदिक ज्ञान भी बढ़ता है। राजन! क्षत्रिय के लिये ग्रीष्‍म–ऋतु में अग्‍न्‍याधान करना श्रेष्‍ठ माना गया है। जो क्षत्रिय ग्रीष्‍म-ऋतु में अग्‍नि-स्‍थापना करता है, उसकी सम्‍पत्ति, प्रजा, पशु, धन, तेज, बल और यश की अभिवृद्धि होती है। शरत्‍काल की रात्रि साक्षात वैश्‍य का स्‍वरूप है, इसलिये वैश्‍य को शरद-ऋतु में अग्‍नि का आधान करना चाहिये; उस समय की स्‍थापित की हुई अग्‍नि को वैश्‍य योनि कहते हैं। पाण्‍डुनन्‍दन! जो वैश्‍य शरद-ऋतु में अग्‍नि की स्‍थापना करता है, उसकी सम्‍पत्ति, प्रजा, आयु, पशु और धन की वृद्धि होती है। सब प्रकार के रस, घी आदि स्‍निग्‍ध पदार्थ, सुगन्‍धित द्रव्‍य, रत्‍न, मणि, सुवर्ण और लोहा- इन सबकी उत्‍पत्ति अग्‍निहोत्र के लिये ही है।

अग्‍निहोत्र को ही जानने के लिये आयुर्वेद, धनुर्वेद, मीमांसा, विस्‍तृत न्‍याय-शास्‍त्र और धर्मशास्‍त्र का निर्माण किया गया है। छन्‍द, शिक्षा, कल्प, व्‍याकरण, ज्‍यौतिष शास्‍त्र और निरुक्‍त भी अग्‍निहोत्र के लिये रचे गये हैं। इतिहास, पुराण, गाथा, उपनिषद और अथर्ववेद के कर्म भी अग्‍निहोत्र के लिये ही हैं। निष्‍पाप! तिथि, नक्षत्र, योग, मुहुर्त और करणरूप काल का ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये पूर्वकाल में ज्‍यौतिष-शास्‍त्र का निर्माण हुआ है। ऋग्‍वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्‍त्रों के छन्‍द का ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये तथा संशय और विकल्‍प के निराकरण पूर्वक उनका तात्‍विक अर्थ समझने के लिये छन्‍द:शास्‍त्र की रचना की गई है।[1]

वर्ण, अक्षर और पदों के अर्थ का, संधि और लिंग का तथा नाम और धातु का विवेक होने के लिये पूर्वकाल में व्‍याकरण शास्‍त्र की रचना हुई है। यूप, वेदी और यज्ञ का स्‍वरूप जानने के लिये, प्रोक्षण और श्रपण (चरु पकाना) आदि की इतिकर्तव्‍यता को समझने के लिये तथा ज्ञान यज्ञ और देवता के सम्‍बन्‍ध का ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये शिक्षा नामक वेदांग की रचना हुई है। यज्ञ के पात्रों की शुद्धि, यज्ञ सम्‍बन्‍धी सामग्रियों के संग्रह तथा समस्‍त यज्ञों के वैकल्‍पिक विधानों का ज्ञान प्राप्‍त करने के लिये पूर्वकाल में कल्‍पशास्‍त्र का निर्माण किया गया है। सम्‍पूर्ण वेदों में प्रयुक्‍त नाम, धातु और विकल्‍पों के तात्‍विक अर्थ का निश्‍चय करने के लिये ऋषियों ने निरुक्‍त की रचना की है।

यज्ञ की वेदी बनाने तथा अन्‍य सामग्रियों को धारण करने के लिये ब्रह्मा जी ने पृथ्‍वी की सृष्‍टि की है। समिधा और यूप बनाने के लिये वनस्‍पतियों की रचना की है। गौएं यज्ञ और दक्षिणा के लिये उत्‍पन्‍न हुई हैं, क्‍योंकि गोघृत और गोदक्षिणा के बिना यज्ञ सम्‍पन्‍न नहीं होता। सुवर्ण और चांदी- ये यज्ञ के पात्र और कलश बनाने का काम लेने के लिये पैदा हुए हैं। कुशों की उत्‍पत्‍ति हवनकुण्‍ड के चारों ओर फैलाने और राक्षसो से यज्ञ की रक्षा करने के लिये हुई है। पूजन करने के लिये ब्राह्मणों को, नक्षत्रों को और स्‍वर्ग के देवताओं को उत्‍पन्‍न किया गया है। सबकी रक्षा के लिये क्षत्रिय-जाति की सृष्‍टि की गयी है। कृषि, गौ रक्षा और वाणिज्‍य आदि जीविका का साधन जुटाने के लिये वैश्‍यों की उत्‍पत्‍ति हुई है और तीनों वर्णों की सेवा के लिये ब्रह्मा जी ने शूद्रों को उत्‍पन्‍न किया है। जो द्विज विधिपूर्वक अग्‍निहोत्र का सेवन करते हैं, उनके द्वारा दान, होम, यज्ञ और अध्‍यापन- ये समस्‍त कर्म पूर्ण हो जाते हैं।

अग्निहोत्र यज्ञ करने की विधि का वर्णन

राजन! इसी प्रकार ब्राह्मणों के द्वारा जो यज्ञ करने, बगीचे लगाने और कुएं खुदवाने आदि के कार्य होते हैं, उन सबके पुण्‍य को लेकर मैं सूर्यमण्‍डल में स्‍थापित कर देता हूँ। मेरे द्वारा आदित्‍य में स्‍थापित किये हुए संसार के पुण्‍य और अग्‍निहोत्रियों के सुकृत को सहस्‍त्रों किरणों वाले सूर्यदेव धारण किये रहते हैं। इसलिये राजन जो द्विज परदेश में न रहते हों और ऊर्ध्‍वगति को प्राप्‍त करना चाहते हों, उन्‍हें प्रतिदिन विधिपूर्वक अग्‍निहोत्र करना चाहिये।

महाराज युधिष्ठिर! अग्‍निहोत्र को अपने आत्‍मा के समान समझकर कभी भी उसका अपमान या एक क्षण के लिये भी त्‍याग नहीं करना चाहिये। जो बाल्‍यकाल से ही अग्‍निहोत्र का सेवन करते और शूद्र के अन्‍न से सदा दूर रहते हैं, जो क्रोध और लोभ से रहित हैं, जो प्रतिदिन प्रात:काल स्‍नान करके जितेन्‍द्रीय भाव से विधिवत अग्‍निहोत्र का अनुष्‍ठान करते हैं, सदा अतिथि की सेवा में लगे रहते हैं तथा शान्‍त भाव से रहकर दोनों समय मेरे परायण होकर मेरा ध्‍यान करते हैं, वे सूर्य मण्‍डल को भेदकर मेरे परम धाम को प्राप्‍त होते हैं, जहाँ से पुन: इस संसार में नहीं लौटना पड़ता। इस संसार में कुछ मूर्ख मनुष्‍य श्रुति पर दोषारोपण करते हुए उसकी निन्‍दा करते हैं तथा उसे प्रमाणभूत नहीं मानते, ऐसे लोगों की बड़ी दुर्गति होती है। परंतु जो द्विज नित्‍य आस्‍तिक्‍य बुद्धि से युक्‍त होकर वेदों और इतिहासों को प्रामाणिक मानते हैं, वे देवताओं का सायुज्‍य प्राप्‍त करते हैं।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-50
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-51

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