अग्निपुत्र सुदर्शन की मृत्यु पर विजय

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 2 में अग्निपुत्र सुदर्शन की मृत्यु पर विजय का वर्णन हुआ है[1]-

अग्नि देव एवं सुदर्शना को पुत्र की प्राप्ति

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सुदर्शना के रूप, शील, कुल, शरीर की आकृति और कान्ति को देखकर अग्निदेव बहुत प्रसन्‍न हुए और उन्‍होंने उसमें गर्भाधान करने का विचार किया। कुछ काल के पश्‍चात उसके गर्भ से अग्नि के एक पुत्र हुआ जिसका नाम सुदर्शन रखा गया। वह रूप में पूर्ण चन्‍द्रमा के समान मनोहर था और उसे बचपन में ही सर्वस्‍वरूप सनातन परब्रह्म का ज्ञान हो गया था। उन दिनों राजा नृग के पितामह ओघवान इस पृथ्‍वी पर राज्‍य करते थे। उनके ओघवती नाम वाली एक कन्‍या और ओघरथ नाम वाला एक पुत्र था। ओघवती देवकन्‍या के समान सुन्‍दरी थी। ओघवान ने अपनी उस पुत्री को विद्वान सुदर्शन को पत्‍नी बनाने के लिये दे दिया।

राजन! सुदर्शन उसके साथ गृहस्‍थ-धर्म का पालन करने लगे। उन्‍होंने ओघवती के साथ कुरुक्षेत्र में निवास किया। प्रजानाथ! प्रभो! उद्दीप्‍त तेज वाले उस बुद्धिमान सुदर्शन ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं गृहस्‍थ-धर्म का पालन करते हुए ही मृत्‍यु को जीत लूँगा। राजन! अग्निकुमार सुदर्शन ने ओघवती से कहा- देवि! तुम्‍हें अतिथि के प्रतिकूल किसी तरह का कोई कार्य नहीं करना चाहिये। जिस-जिस वस्‍तु से अतिथि संतुष्‍ट हो, वह वस्‍तु तुम्‍हें सदा ही उसे देनी चाहिये। यदि अतिथि के संतोष के लिये तुम्‍हें अपना शरीर भी देना पड़े तो मन में कभी अन्‍यथा विचार न करना। ब्राह्मण को बैठने के लिये आसन और पैर धोने के लिये जल देकर ओघवती ने उससे पूछा- विप्रवर! आपको किस वस्‍तु की आवश्‍यकता है? मैं आपकी सेवा में क्‍या भेंट करूँ? तब ब्राह्मण ने दर्शनीय सौन्‍दर्य से सुशोभित राजकुमारी ओघवती से कहा- कल्‍याणि। मुझे तुम से ही काम है। तुम नि:शंक होकर मेरा यह प्रिय कार्य करो। रानी! यदि तुम्‍हें गृहस्‍थ सम्‍मत धर्म मान्‍य है तो मुझे अपना शरीर देकर मेरा प्रिय कार्य करना चाहिये। राजकन्‍या ने दूसरी कोई अभीष्‍ट वस्‍तु माँगने के लिये उस अतिथि से बारंबार अनुरोध किया, किंतु उस ब्राह्मण ने उसके शरीर-दान के सिवा और कोई अभिलषित पदार्थ उससे नहीं माँगा। तब राजकुमारी ने पहले कहे हुए पति के वचन को याद करके लजाते-लजाते उस द्विजश्रेष्‍ठ से कहा- अच्‍छा, आपकी आज्ञा स्‍वीकार है। गृहस्‍थाश्रम-धर्म के पालन की इच्‍छा रखने वाले पति की कही हुई बात को स्‍मरण करके जब उसने ब्राह्मण के समक्ष हाँ कर दिया, तब उस विप्र ऋषि ने मुसकराकर ओघवती के साथ घर के भीतर प्रवेश किया। इतने ही में अग्निकुमार सुदर्शन समिधा लेकर लौट आये।

अग्नि पुत्र सुदर्शन का अतिथि सत्कार

मृत्‍यु क्रूर भावना से सदा उनके पीछे लगी रहती थी, मानो कोई स्‍नेह बन्‍धु अपने प्रिय बन्‍धु के पीछे-पीछे चल रहा हो। आश्रम पर पहुँचकर फिर अग्निपुत्र सुदर्शन अपनी पत्‍नी ओघवती को बारंबार पुकारने लगे- देवि! तुम कहाँ चली गयी? परंतु ओघवती ने उस समय अपने पति को कोई उत्तर नहीं दिया। अतिथिरूप में आये हुए ब्राह्मण ने अपने होनों हाथों से उसे छू दिया था। इससे वह सती-साध्‍वी पतिव्रता अपने को दूषित मानकर अपने स्‍वामी से भी लज्जित हो गयी थी; इसीलिये वह साध्‍वी चुप हो गयी। कुछ भी बोल न सकी। अब सुदर्शन फिर पुकार-पुकार कर इस प्रकार कहने लगा- मेरी वह साध्‍वी पत्‍नी कहाँ है? वह सुशीला कहाँ चली गयी? मेरी सेवा से बढ़कर कौन गुरुतर कार्य उस पर आ पड़ा। वह पतिव्रता, सत्‍य बोलने वाली और सदा सरलभाव से रहने वाली है। आज पहले की ही भाँति मुसकराती हुई वह मेरी अगवानी क्‍यों नहीं कर रही है ?[2]

यह सुनकर आश्रम के भीतर बैठे हुए ब्राह्मण ने सुदर्शन को उत्तर दिया- अग्निकुमार! तुम्‍हें ज्ञात होना चाहिये कि मैं ब्राह्मण हूँ और तुम्‍हारे घर पर अतिथि के रूप में आया हूँ। साधुशिरोमणे! तुम्‍हारी इस पत्‍नी ने अतिथि-सत्‍कार के द्वारा मेरी इच्‍छा पूर्ण करने का वचन दिया है। ब्रह्मन! तब मैंने इसे ही वरण कर लिया है। इसी विधि के अनुसार यह सुमुखी इस समय मेरी सेवा में उपस्थित हुई है। अब यहाँ तुम्‍हें दूसरा जो कुछ उचित प्रतीत हो, वह कर सकते हो। इसी समय मृत्‍यु हाथ में लोहदण्‍ड लिये सुदर्शक के पीछे आकर खड़ी हो गयी। वह सोचती थी कि अब तो यह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ बैठेगा। इसलिये इसे यहीं मार डालूँगी। परंतु सुदर्शन मन, वाणी, नेत्र और क्रिया से भी ईर्ष्‍या तथा क्रोध का त्‍याग कर चुके थे। वे हँसते-हँसते यों बोले- प्रियवर! आपकी सुरत कामनापूर्ण हो। इससे मुझे बड़ी प्रसन्‍नता है; क्‍योंकि घर पर आये हुए अतिथि का पूजन करना गृहस्‍थ के लिये सबसे बड़ा धर्म है। जिस गहस्‍थ के घर पर आया हुआ अतिथि पूजित होकर जाता है उसके लिये उससे बढकर दूसरा कोई धर्म नहीं है- ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं।
मेरे प्राण, मेरी पत्‍नी तथा मेरे पास और जो कुछ धन-दौलत हैं, वह सब मेरी ओर से अतिथियों के लिये निछावर है, ऐसा मैंने व्रत ले रखा है। ब्रह्मन! मैंने जो यह बात कही है, इसमें संदेह नहीं है। इस सत्‍य को सिद्ध करने के लिये मैं स्‍वयं ही अपने शरीर को छूकर शपथ खाता हूँ। धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ ब्राह्मण! पृथ्‍वी, वायु, आकाश, जल, नेत्र, बुद्धि, आत्मा, मन, काल और दिशाएँ- ये दस गुण (वस्‍तुएँ) सदा ही प्राणियों के शरीर में स्थित होकर उनके पुण्‍य और पापकर्म को देखा करते हैं। आज मेरी कही हुर्इ यह वाणी यदि मिथ्‍या नहीं है तो इस सत्‍य के प्रभाव से देवता मेरी रक्षा करें, अथवा मिथ्‍या होने पर मुझे जलाकर भस्‍म कर डालें। भरतनन्‍दन! सुदर्शन के इतना कहते ही सम्‍पूर्ण दिशाओं से बारंबार आवाज आने लगी- तुम्‍हारा कथन सत्‍य है। इसमें झूठ का लेश भी नहीं है। तत्‍पश्‍चात वह ब्राह्मण उस आश्रम से बाहर निकला। वह अपने शरीर से वायु की भाँति पृथ्‍वी और आकाश को व्‍याप्त करके स्थित हो गया।

अग्निपुत्र सुदर्शन की मृत्यु पर विजय

शिक्षा के अनुकूल उदात्त आदि स्‍वर से तीनों लोकों को प्रतिध्‍वनित करते हुए उस ब्राह्मण ने पहले धर्मज्ञ सुदर्शन को सम्‍बोधित करके उससे इस प्रकार कहा -निष्‍पाप सुदर्शन! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। मैं धर्म हूँ और तुम्‍हरी परीक्षा लेने के लिये यहाँ आया हूँ। तुममें सत्‍य है- यह जानकर मैं तुम पर बहुत प्रसन्‍न हुआ हूँ। तुमने इस मृत्‍यु को, जो सदा तुम्‍हारा छिद्र ढूँढती हुई तुम्‍हारे पीछे लगी रहती थी, जीत लिया। तुमने अपने धैर्य से मृत्‍यु को वश में कर लिया है। पुरुषोत्तम! तीनों लोकों में किसी की भी ऐसी शक्ति नहीं है जो तुम्‍हारी इस सती-साध्‍वी पतिव्रता पत्‍नी की ओर कलुषित भावना से आँख उठाकर देख भी सके। यह तुम्‍हारे गुणों से तथा अपने पतिव्रत्‍य के गुणों द्वारा भी सदा सुरक्षित है। कोई भी इसका पराभव नहीं कर सकता। यह जो बात अपने मुँ से निकालेगी वह सत्‍य ही होगी। मिथ्‍या नहीं हो सकती।[3]

अपने तपोबल से युक्‍त यह ब्रह्मवादिनी नारी संसार को पवित्र करने के लिये अपने आधे शरीर से ओघवती नाम वाली श्रेष्‍ठ नदी होगी और आधे शरीर से यह परम सौभाग्‍यवती सती तुम्‍हारी सेवा में रहेगी। योग सदा इसके वश में रहेगा। तुम भी इसके साथ अपनी तपस्या से प्राप्‍त हुए उन सनातन लोकों में जाओगे जहाँ से फिर इस संसार में लौटना नही पड़ता। तुम इसी शरीर से उन दिव्‍य लोकों मे जाओगे: क्‍योंकि तुमने मृत्‍यु को जीत लिया है और तुम्‍हें उत्‍तम ऐश्‍वर्य प्राप्‍त है। अपने पराक्रम से पन्‍चभूतों को लाँघकर तुम मन के समान वेगवान हो गये हो। इस गृहस्‍थ धर्म के आचरण से ही तुमने काम और क्रोध पर विजय पा ली है। राजन! राजकुमारी ओघवती ने तुम्‍हारी सेवा के बल से स्‍नेह (आसक्ति), राग, आलस्‍य, मोह, और द्रोह आदि दोषों को जीत लिया है। भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्‍तर भगवान इन्‍द्र भी श्‍वेत रंग के एक हजार घोड़ों से जुते हुए उत्तम रथ को लेकर उनसे मिलने के लिये आये। इस प्रकार सुदर्शन अतिथि-सत्‍कार के पुण्‍य से मृत्‍यु, आत्‍मा, लोक, पंचभूत, बुद्धि, काल, मन, आकाश, काम और क्रोध को भी जीत लिया।

पुरुषसिंह! इसलिये तुम अपने मन में यह निश्चित विचार कर लो कि गृहस्‍थ पुरुष के लिये अतिथि को छोड़कर दूसरा कोई देवता नहीं है। यदि अतिथि पूजित होकर मन-ही-मन गृहस्‍थ के कल्‍याण का चिन्‍तन करे तो उससे जो फल मिलता है उसकी सौ यज्ञों से भी तुलना नहीं हो सकती अर्थात सौ यज्ञों से भी बढकर है। ऐसा मनीषी पुरुषो का कथन है। जो गहस्‍थ सुपात्र और सुशील अतिथि को पाकर उसका यथोचित सत्‍कार नहीं करता, वह अतिथि उसे अपना पाप दे उसका पुण्‍य लेकर चला जाता है। बेटा! तुम्‍हारे प्रश्‍न के अनुसार पूर्वकाल में गृहस्‍थ ने जिस प्रकार मृत्‍यु पर विजय पायी थी, वह उत्‍तम उपाख्‍यान मैंने तुमसे कहा। यह उत्तम आख्‍यान धन, यहश और आयु की प्राप्ति कराने वाला है। इससे सब प्रकार के दुष्‍कर्मों का नाश हो जाता है, अत: अपनी उन्‍नति चाहने वाले पुरुष को सदा ही इसके प्रति आदर बुद्धि रखनी चाहिये। भरतनन्‍दन! जो विद्वान सुदर्शन के इस चरित्र का प्रतिदिन वर्णन करता है वह पुण्‍यलोकों को प्राप्‍त होता है[4][5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 2 श्लोक 23-43
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 2 श्लोक 44-63
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 2 श्लोक 64-82
  4. इस अध्‍याय में वर्णित चरित्र असाधारण शक्तिसम्‍पन्‍न पुरुषों के हैं। आज कल के साधारण मनुष्‍यों को इसके उस अंश का अनुकरण नहीं करना चाहिए जिसमें स्‍त्री के लिये अपने शरीर-प्रदान की बात कही गयी है। अतिथि को अन्‍न, जल, बैठने के लिए आसन, रहने के लिए स्‍थान, सोन के लिए बिस्‍तर और वस्‍त्र आदि वस्‍तुएँ अपनी शक्ति के अनुसार समर्पित करनी चाहिये। मीठे वचनों द्वारा उसका आदर-सत्‍कार भी करना चाहिये। इतना ही इस अध्‍याय का तात्‍पर्य है।
  5. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 2 श्लोक 83-96

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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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