अग्निदेव का संवर्त के भय से लौटना और इन्द्र से ब्रह्मबल की श्रेष्ठता बताना

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 9 में अग्निदेव का संवर्त के भय से लौटना और इन्द्र से ब्रह्मबल की श्रेष्ठता बताने का वर्णन हुआ है।[1]

अग्निदेव का संवर्त के भय से लौटना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! व्यास जी कहते हैं- संवर्त की बात सुनकर अग्रिदेव भस्म होने के भय से व्यथित हो पीपल के पत्ते की तरह काँपते हुए तुरंत देवताओं के पास लौट गये। उन्हें आया देख महामना इन्द्र ने बृहस्पति जी के सामने ही पूछा- ‘अग्रिदेव! तुम तो मेरे भेजने से बृहस्पति जी को राजा मरुत्त के पास पहुँचाने का संदेश लेकर गये थे। बताओं, यज्ञ की तैयारी करने वाले राजा मरुत्त क्या कहते हैं? वे मेरी बात मानते है या नहीं?’ अग्नि ने कहा- देवराज! राजा मरुत्त को आपकी बात पंसद नहीं आयी। बृहस्पति जी को तो उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम कहलाया है। मेरे बारंबार अनुरोध करने पर भी उन्होंने यही उत्तर दिया है कि ‘संवर्त जी ही मेरा यज्ञ करायेंगे’। उन्होंने यह भी कहा है कि जो ‘जो मनुष्यलोक, दिव्यलोक और प्रजापति के महान लोक हैं, उन्हें भी यदि इन्द्र के साथ समझौता करके ही पा सकता हूँ तो भी मैं बृहस्पति जी को अपने यज्ञ का पुरोहित बनाना नहीं चाहता हूँ। यह मैं दृढ़ निश्चय के साथ कह रहा हूँ’। इन्द्र ने कहा- अग्रिदेव! एक बार फिर जाकर रजा मरुत्त से मिलो और मेरा अर्थयुक्त संदेश उनक पास पहुँचा दो। यदि तुम्हारे द्वारा दुबारा कहने पर भी मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं उनके ऊपर वज्र का प्रहार करूँगा। अग्नि ने कहा- देवेन्द्र! ये गन्धर्वराज वहाँ दूत बनकर जायँ। मैं दुबारा वहाँ जाने से डरता हूँ, क्योंकि ब्रह्मचारी संवर्त ने तीव्र रोष में भरकर मुझ से कहा था कि ‘अग्रे! यदि फिर इस प्रकार किसी तरह बृहस्पति को मरुत्त के पास पहुँचाने के लिये आओंगे तो मैं कुपित हो दारुण दूष्टि से तुम्हें भस्म कर डालूँगा।’ इन्द्र! उनकी इस बात को अच्छी तरह समझ लीजिये।[1]

इन्द्र ने कहा- हव्यवाहन! अग्रिदेव! तुम तो ऐसी बात कह रहे हो, जिस पर विश्वा नहीं होता, क्योंकि तुम्हीं दूसरों को भस्म करते हो। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई भस्म करने वाला नहीं है। तुम्हारे स्पर्श से सभी लोग डरते हैं। अग्रिदेव ने कहा- देवेन्द्र! आप भी तो अपने बल से सारी पृथ्वी और स्वर्ग लोक को आवेष्टित किये हुए हैं। ऐसे होने पर भी आपके इस स्वर्ग को पूर्वकाल में वृत्रासुर ने कैसे हर लिया? इन्द्र ने कहा- अग्रिदेव! मैं पर्वत को भी मक्खी के समान छोटा कर सकता हूँ तो भी शत्रु का दिया हुआ सोमरस नहीं पीता हूँ और जिसकी शक्ति क्षीण हो गयी हैं, ऐसे शत्रु पर वज्र का प्रहार नहीं करता। फिर भी कौन ऐसा मनुष्य है जो मुझे कष्ट पहुँचाने के लिय मुझ पर प्रहार कर सके? मैं चाहूँ तो कालकेय- जैस दानवों को आकाश से खींचकर पृथ्वी पर गिरा सकता हूँ। इसी प्रकार स्वर्ग से प्रह्लाद के प्रभुत्व का भी अन्त कर सकता हूँ, फिर मनुष्यों में कौन ऐसा है जो कष्ट देने के लिये मुझ पर प्रहार कर सके?

इन्द्र से ब्रह्मबल की श्रेष्ठता का वर्णन

अग्रिदेव ने कहा- महेन्द्र! राजा शर्याति के उस यज्ञ का तो स्मरण कीजिये, जहाँ महर्षि च्यवन उनका यज्ञ कराने वाले थे। आप क्रोध में भरकर उन्हें मना करते ही रह गये और उन्होंने अकेले अपने ही प्रभाव से सम्पूर्ण देवताओं सहित अश्विनीकुमारों के साथ सोमरस का पान किया। पुरंदर! उस समय आप अत्यन्त भयंकर वज्र लेकर महर्षि च्यवन के ऊपर प्रहार करना ही चाहते थे, किंतु उन ब्रह्मर्षि ने कुपित होकर अपने तपो बल से आपकी बाँह को वज्र सहित जकड़ दिया। तदनन्तर उन्होंने पुन: रोषपूर्वक आपके लिये सब ओर से भयानक रूप वाले एक शत्रु को उत्पन्न किया। जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त मद नामक असुर था और जिसे देखते ही आपने आँखें बंद कर ली थीं। उस विशालकाय दानव की एक ठोढ़ी पृथ्वी पर टिकी हुई थी और दूसरा ऊपर का ओठ स्वर्ग से जा लगा था। उसके सैकड़ों योजन लंबे सहस्रों तीखे दाँत थे, जिससे उसका रूप बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। उसकी चार दाढ़ेेें गोलाकार, मोटी और चाँदी के खम्भों के समान चमकीली थीं। उनकी लंबाई दो-दो सौ योजन की थी।

वह दानव भयंकर त्रिशूल लेकर आपको मार डालने की इच्छा से दाँत पीसता हुआ दौड़ा था। दानवदलन देवराज! आपने उस समय उस घोररूपधारी दानव को देखा था और अन्य सब लोगों ने आपकी ओर भी दृष्टिपात किया था। उस अवसर पर भय के कारण आपकी जो दशा हुई थी, वह देखने ही योगय थी। आप उस दानव से भयभीत हो हाथ जोड़कर महर्षि च्यवन की शरण में गये थे। अत: देवेन्द्र! क्षात्रबल की अपेक्षा ब्राह्मण बल श्रेष्ठतम है। ब्राह्मण से बढ़कर दूसरी कोई शक्ति नही है। मैं ब्रह्मतेज को अच्छी तरह जानता हूँ, अत: संवर्त को जीतने की मुझे इच्छा तक नहीं होती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 9 श्लोक 13-26

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