- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 94 में अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
भीष्म का संवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। तीर्थ यात्रा के प्रसंग में इसी तरह की शपथ को लेकर एक घटना घटित हुई थी, उसे बताता हूं, सुनो! भरतवंश शिरोमणे! महाराज! पूर्वकाल में कुछ राजर्षियों और ब्रह्मर्षियों ने भी इसी प्रकार कमलों के लिये चोरी की थी। पश्चिम समुद्र के तट पर प्रभास तीर्थ में बहुत से ऋषि एकत्र हुए थे। उन समागत महर्षियों ने आपस में यह सलाह की कि हम लोग अनेक पुण्य तीर्थों से भरी हुई समूची पृथ्वी की यात्रा करें। यह हम सभी लोगों की अभिलाषा है। अतः सब लोग साथ-ही-साथ यात्रा प्रारम्भ कर दें। राजन! ऐसा निश्चय करके शुक्र, अंगिरा, विद्वान कवि, अगस्त्य, नारद, पर्वत, भृगु, वसिष्ठ, गौतम, कश्यप, विश्वामित्र, जमदग्नि, गालव मुनि, अष्टक, भारद्वाज, अरुन्धती, वालखिल्यगण, शिबि, दिलीप, नहुष, अम्बरीष, राजा ययाति, धुन्धुकुमार और पुरू - ये सभी राजर्षि तथा ब्रह्मर्षि वज्रधारी महानुभाव वृत्रहन्ता शतक्रतु इन्द्र को आगे करके यात्रा के लिये निकले और सभी तीर्थों में घूमते हुए माघ मास की पूर्णिमा तिथी को पुण्य सालिला कौषकी नदी के तट पर जा पहुँचे। इस प्रकार वहाँ के तीर्थों में स्नान के द्वारा अपने पाप धोकर ऋषिगण उस स्थान से परम पवित्र ब्रह्मसर तीर्थ में गये। उन अग्नि के समान तेजस्वी ऋर्षियों ने वहाँ के जल में स्नान करके कमल के फूलों का आहार किया।
राजन! कुछ ऋषि वहाँ कमल खोदने लगे। कुछ ब्राह्मण मृणाल उखाड़ने लगे। इसी बीच अगस्त्य जी ने उस पोखरे से जितना कमल उखाड़कर रखा था वह सब सहसा गायब हो गया। इस बात को सबने देखा। तब अगस्त्य जी ने उन समस्त ऋषियों से पूछा- ‘किसने मेरे सुन्दर कमल ले लिये मैं आप सब लोगों पर संदेह करता हूँ। मेरे कमल लौटा दीजिये। आप जैसे साधू पुरुषों को कमलों की चोरी करना कदापि उचित नहीं है।' ‘सुनता हूँ कि काल धर्म की शक्ति को नष्ट कर देता है। वही काल इस समय प्राप्त हुआ। तभी तो धर्म को हानि पहुँचायी जा रही है - अस्तेय- धर्म का हनन हो रहा है। अतः इस जगत में अधर्म का विस्तार न हो इसके पहले ही हम चिरकाल के लिये स्वर्गलोक में चले जायें। ब्राह्मण लोग गांव के बीच में उच्च स्वर से वेद पाठ करके शूद्रों को सुनाने लगें तथा राजा व्यावसायिक दृष्टि से धर्म को देखने लगें, इससे पहले ही मैं परलोक में चला जाऊं। ‘जब तक सभी श्रेष्ठ मनुष्य महान पुरुषों की नीचों के समान अवहेलना नहीं करते हैं तथा जब तक इस संसार में अज्ञान जनित तमोगुण का बाहुल्य नहीं हो जाता, इसके पहले ही मैं चिरकाल के लिये परलोक चला जाऊं।' ‘भविष्यकाल में बलवान मनुष्य दुर्बलों को अपने उपभोग में लायेंगे, इस बात को मैं अभी से देख रहा हूँ।' इसलिये मैं दीर्घकाल के लिये परलोक में चला जाऊं। यहाँ रहकर इस जीव जगत की ऐसी दुर्वस्था में नहीं नहीं देख सकता।[1]
अगस्त्य के कमलों की चोरी
यह सुनकर सभी महर्षि घबरा उठे और अगस्त्य जी से बोले- महेर्षे! हमने आपके कमल नहीं चुराये हैं। आपको झूठा कलंक नहीं लगाना चाहिये। हम अपनी सफाई देने के लिये कठोर-से-कठोर शपथ खा सकते हैं। पृथ्वीनाथ! तदनन्तर वे महर्षि तथा नरेशगण वहाँ कुछ निश्चय करके इस धर्म पर दृष्टि रखते हुए पुत्रों और पौत्रों सहित बारी-बारी से शपथ खाने लगे।[2]
भृगु बोले- मुने! जिसने आपके कमल की चोरी की है, वह गाली सुनकर बदले में गाली दे और मार खाकर बदले में स्वयं भी मारे तथा दूसरे की पीठ के मांस खाये अर्थात उपर्युक्त पापों का भागी हो।
वसिष्ठ ने कहा- जिसने आपके कमल चुराये हों, वह स्वाध्याय से विमुख हो जाये। कुत्ता साथ लेकर शिकार खेले और गांव-गांव भीख मांगता रहे।
कश्यप ने कहा- जो अपका कमल चुरा ले गया हो, वह सब जगह सब तरह की वस्तुओं की खरीद-बिक्री करे। किसी की धरोहर को हड़प लेने का लोभ करे और झृठी गवाही दे, अर्थात उपर्युक्त पापों का भागी हो।
गौतम बोले- जिसने आपके कमल की चोरी की हो, वह अहंकारी, बेईमान और अयोग्य का साथ करने वाला, खेती करने वाला और ईर्ष्यायुक्त होकर जीवन व्यतीत करे।
अंगिरा ने कहा- जो आपका कमल ले गया हो, वह अपवित्र, वेद को मिथ्या बताने वाला, ब्रह्म हत्यारा और अपने पापों का प्रायश्चित न करने वाला हो। इतना ही नहीं, वह कुत्तों को साथ लेकर शिकार खेलता फिरे, अर्थात उपर्युक्त पापों का भागी हो।
धुन्धुकुमार ने कहा- जिसने आपके कमलों की चोरी की हो, वह अपने मित्रों का उपकार न माने। शूद्र जाति की स्त्री से संतान उत्पन्न करे और अकेला ही स्वादिष्ट अन्न भोजन करे। अर्थात इन पापों के फल का भागी बने। पूरु बाले- जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह चिकित्सा का व्यवसाय (वैद्य या डाक्टर का पेशा) करे। स्त्री की कमाई खाये और ससुराल के धन पर गुजारा करे।
दिलीप बोले- जो आपका कमल चुराकर ले गया हो, वह एक कूऐं पर सबके साथ पानी भरने वाले गांव में रहकर शूद्र जाति की स्त्री से सम्बन्ध रखने वाले ब्राह्मण को मृत्यु के पश्चात् जिन दुःखदायी लोकों में जाना पड़ता है, उन्हीं में जाये।
शुक्र ने कहा- जो आपका कमल चुरा कर ले गया हो, उसे मांस खाने का, दिन में मैथुन करने का और राजा की नौकरी करने का पाप लगे।
जमदग्नि बोले- जिसने आपके कमल लिये हों, वह निषिद्ध काल में अध्ययन करे। मित्र को ही श्राद्ध में जिमावे तथा स्वयं भी शूद्र के श्राद्ध में भोजन करे।
शिवि ने कहा- जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह अग्निहोत्र किये बिना ही मर जाये, यज्ञ में विघ्न डाले और तपस्वीजनों के साथ विरोध करे, अर्थात इन सब पापों के फल का भागी हो।
ययाती ने कहा- जिसने आपके कमलों की चोरी की हो, वह व्रतधारी होकर भी ऋतुकाल से अतिरिक्त समय में स्त्री समागम करे और वेदों का खण्डन करे, अर्थात इन सब पापों के फल का भागी हो।
नहुष बोले- जिसने आपके कमलों का अपहरण किया हो, वह संन्यासी होकर भी घर में रहे। यज्ञ की दीक्षा लेकर भी इच्छाचारी हो और वेतन लेकर विद्या पढ़ावे, अर्थात इन सब पापों के फल का भागी हो। अम्बरीष ने कहा जो आपका कमल ले गया हो, वह क्रूर स्वभाव का हो जाये, स्त्रियों, बन्धु-बान्धवों और गौओं के प्रति अपने धर्म का पालन न करे तथा ब्रह्म हत्या के पाप का भागी हो।[2]
ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ
अम्बरीष ने कहा- जो आपका कमल ले गया हो, वह क्रूर स्वभाव का हो जाये, स्त्रियों, बन्धु-बान्धवों और गौओं के प्रति अपने धर्म का पालन न करे तथा ब्रह्म हत्या के पाप का भागी हो।[3]
नारद जी ने कहा- जिसने आपके कमलों का अपहरण किया हो, वह देह रूपी घर को ही आत्मा समझे। मर्यादा का उल्लंघन करके शास्त्र पढ़े। स्वरहीन पद का उच्चारण करे और गुरुजनों का अपमान करता रहे, अर्थात उपयुक्त पापों का भागी बने।
नाभाग बोले- जिसने आपके कमल चुराये हों, उसे सदा झूठ बोलने का, संतो के साथ विरोध करने का, और कीमत लेकर कन्या बेचने का पाप लगे।
कवि ने कहा- जिसने आपका कमल लिया हो, उसे गौ को लात मारने का, सूर्य की ओर मुंह करके पेशाब करने का और शरणागत को त्याग देने का पाप लगे।
विश्वामित्र बोले- जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह वैश्य का भृत्य होकर उसी के खेत में वर्षा में बाधा उपस्थित करे। राजा का पुरोहित हो और यज्ञ के अनधिकारी का यज्ञ कराने के लिये ऋत्विज बने, अर्थात इन पापों के फल का भागी हो।
पर्वत ने कहा- जो आपका कमल ले गया हो, वह गांव का मुखिया हो जाये, गधे की सवारी पर चले तथा पेट भरने के लिये कुत्तों का साथ लेकर शिकार खेले।
भरद्वाज ने कहा- जिसने आपके कमलों की चोरी की है, उस पापी को निर्दयी और असत्यवादी मनुष्यों में रहने वाला सारा-का-सारा पाप सदा ही प्राप्त होता रहे।
अष्टक बोले- जो आपका कमल ले गया हो, वह राजा मन्दबुद्वि, स्वेच्छाचारी और पापात्मा होकर अधर्मपूर्वक इस पृथ्वी का शासन करे। गालव बोले- जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह महापापियों से भी बढ़कर अनादरणीय हो, स्वजनों का भी अपकार करे तथा दान देकर अपने ही मुख से उसका बखान करे।
अरुन्धती बोलीं- जिस स्त्री ने आपका कमल लिया हो, वह अपने सास की निन्दा करे, पति के लिये अपने मन में दुर्भावना रखे और अकेली ही स्वादिष्ट भोजन किया करे, अर्थात इन सब पापों की फलभागिनी बने।
बालखिल्य बोले- जो आपका कमल ले गया हो, वह अपनी जीविका के लिये गांव के दरवाजे पर एक पैर से खड़ा रहे और धर्म को जानते हुए भी उसका परित्याग करे।
शुनःसख बोले- जो आपका कमल ले गया हो, वह द्विज होकर भी सवेरे और शाम को अग्निहोत्र की अवहेलना करके सुख से सोये तथा संन्यासी होकर भी मनमाना बर्ताव करे। अर्थात उपर्युक्त पापों के फल का भागी हो।
सुरभि बोली- जो गाय आपका कमल ले गयी हो, उसके पैर बालों की रस्सी से बांधे जायें उसके दूध के लिये तांबे मिले हुए धातु का दोहन पात्र हो और वह दूसरे गाय के बछड़े से दुही जाये।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 94 श्लोक 1-13
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 94 श्लोक 14-28
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 94 श्लोक 29-43
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| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
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| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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