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− | ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
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− | अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।13।।
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− | सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
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− | सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।14।।
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− | सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
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− | असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।15।।
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− | बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
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− | सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।16।।
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− | अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
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− | भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।17।।
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− | ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
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− | ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।18।।
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− | इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
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− | मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।19।।
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− | प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
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− | विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्।।20।।
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− | कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
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− | पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।21।।
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− | पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
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− | कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।21।।
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− | उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
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− | परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।23।।
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− | य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
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− | सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।24।।
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− | ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
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− | अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।25।।
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− | अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
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− | तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः।।26।।
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− | यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
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− | क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।27।।
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− | समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
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− | विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।28।।
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− | समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
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− | न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।29।।
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− | प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
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− | यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।।30।।
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− | यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
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− | तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।31।।
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− | अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
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− | शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।31।।
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− | यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
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− | सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते।।33।।
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− | यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
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− | क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।34।।
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− | क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
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− | भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।35।।
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