महाभारत वन पर्व अध्याय 308 श्लोक 1-19

अष्टाधिकत्रिशततम (308) अध्‍याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

Prev.png

महाभारत: वन पर्व: अष्टाधिकत्रिशततम अध्यायः: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


कर्ण का जन्म, कुन्ती का उसे पिटारी में रखकर जल में बहा देना ओर विलाप करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार आकाश में जैसे चन्द्रमा का उदय होता है, उसी प्रकार ग्यारहवें मास[1] के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को कुन्ती के उदर में भगवान सूर्य के द्वारा गर्भ स्थापित हुआ। सुन्दर कटिप्रदेश वाली कुन्ती भाई-बहनों के भय से उस गर्भ को छिपाती हुई धारण करने लगी। अतः कोई भी मनुष्य नहीं जान सका कि यह गर्भवती है। एक धाय के सिवा दूसरी कोई स्त्री भी इसका पता न पा सकी। कुन्ती सदा कन्याओं के अन्तःपुर में रहती थी एवं अपने रहस्य को छिपाने में वह अत्यंत निपुण थी। तदनन्तर सुन्दरी पृथा ने यथा समय भगवान सूर्य के कृपा प्रसाद से स्वयं कन्या ही बनी रहकर देवताओं के समान तेजस्वी एक पुत्र को जन्म दिया। उसने अपने पिता के ही समान शरीर पर कवच बाँध रक्खा था और कानों में सोने के बने हुए दो दिव्य कुण्डल जगमगा रहे थे।

उस बालक की आँखें सिंह के समान और कंधे वृषभ जैसे थे। उस बालक के पैदा होते ही भामिनी कुन्ती ने धाय से सलाह लेकर एक पिटारी मँगवायी और उसमें सब ओर सुन्दर मुलायम बिछौने बिछा दिये। इसके बाद उस पिटारी में चारों ओर मोम चुपड़ दिया, जिससे उसके भीतर जल न प्रवेश कर सके। जब वह सब तरह से चिकनी और सुखद हो गयी, तब उसके भीतर उस बालक को सुला दिया और उसका सुन्दर ढक्कन बंद कर दिया तथा रोते-रोते उस पिटारी को अश्व नदी में छोड़ दिया। राजन्! यद्यपि वह यह जानती थी कि किसी कन्या के लिये गर्भधारण करना सर्वथा निषिद्ध और अनुचित है, तथापि पुत्रस्नेह उमड़ आने से कुन्ती वहाँ करुणाजनक विलाप करने लगी। उस समय अश्व नदी के जल में उस पिटारी को छोड़ते समय रोती हुई कुन्ती ने जो बातें कहीं, उन्हें बताता हूँ; सुनो।

वह बोली- ‘मेरे बच्चे! जलचर, थलचर, आकाशचारी तथा दिव्य प्राणी तेरा मंगल करें। तेरा मार्ग मंगलमय हो। बेटा! तेरे पास शत्रु न आयें। जो आ जायें, उनके मन में तेरे प्रति द्रोह की भावना न रहे। जल में उसके स्वामी राजा वरुण तेरी रक्षा करें। अन्तरिक्ष में वहाँ रहने वाले सर्वगामी वायुदेव तेरी रक्षा करें। पुत्र! जिन्होंने दिव्य रीति से तुझे मेरे गर्भ में स्थापित किया है, वे तपने वालों में श्रेष्ठ तेरे पिता भगवान सुर्य सर्वत्र तेरा पालन करें। आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, विश्वेदेव, इन्द्र सहित मरुद्गण, दिक्पालों सहित दिशाएँ तथा समस्त देवता, सभी सम-विषम स्थानों में तेरी रक्षा करें। यदि विदेश में भी तू जीवित रहेगा, तो मैं इन कवच-कुण्डल आदि चिह्नों से उपलक्षित होने पर तुझे पहचान लूँगी। बेटा! तेरे पिता भगवान भुवन भास्कर धन्य हैं, जो अपनी दिव्य दृष्टि से नदी की धारा में स्थित हुए तुझको देखेंगे। देवपुत्र! वह रमणी धन्य है, जो तुझे अपना पुत्र बनाकर पालेगी और तू भूख-प्यास लगने पर जिसके स्तनों का दूध पियेगा। उस भाग्यशालिनी नारी ने कौन-सा ऐसा शुभ स्वप्न देखा होगा, जो सूर्य के समान तेजस्वी, दिव्य कवच से संयुक्त, दिव्य कुण्डलभूषित, कमलदल के समान विशाल नेत्र वाले, लाल कमल समूह से विभूषित तुझ जैसे दिव्य बालक को अपना पुत्र बनायेगी।'

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ मूल पाठ में निर्देश करने के लिए 'दशोत्तरे' यह पद आया है, जिसका अर्थ है ग्यारहवें महीने। यह ग्यारहवाँ महीना कौन-सा है? इस विषय में दो प्रकार के मत उपलब्ध होते हैं। एक मत के अनुसार यहाँ 'माघ' मास ग्रहण किया जाना चाहिए; कारण की वर्ष का आरम्भ चैत्र से होता है, अत: इस क्रम से गणना करने पर 'माघ' ही ग्यारहवाँ महीना निश्चित होता है। दूसरे मत वालों का कहना यह है कि पहले मार्गशीर्ष मास से वर्ष की गणना होती थी। इसीलिए वह 'अग्रहायण' (वर्ष का प्रथम मास) कहा जाता है। 'मासानां मार्गशीर्षसहम्‌' इस वचन से भी यही सूचित होता है। इस क्रम से गणना करने पर 'आश्विन मास' ग्यारहवाँ सिद्ध होता है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः