- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 98 में तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
युधिष्ठिर का भीष्म से अनुरोध
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! यह जो दीपदान नामक कर्म है, यह कैसे किया जाता है? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? अथवा इसका फल क्या है? यह मुझे बताइये।
भीष्म जी ने कहा- भारत! इस विषय में प्रजापति मनु और सुवर्ण के संवाद रूप प्राचनी इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। भरतनन्दन! सुवर्ण नाम से प्रसिद्ध एक तपस्वी ब्राह्मण थे। उनके शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी। इसीलिये वे सुवर्ण नाम से विख्यात हुए थे। वे उत्तम कुल, शील और गुण से सम्पन्न थे। स्वाध्याय में भी उनकी बड़ी ख्याति थी। वे अपने गुणों द्वारा उत्तम कुल में उत्पन्न हुए बहुत-से श्रेष्ठ पुरुषों की अपेक्षा आगे बढे़ हुए थे।
एक दिन उन ब्राह्मण देवता ने प्रजापति मनु को देखा। देखकर वे उनके पास चले गये। फिर तो वे दोनों एक-दूसरे से कुशल-समाचार पूछने लगे। तदनन्तर वे दोनों सत्यसंकल्प महात्मा सुवर्णमय पर्वत मेरू के एक रमणीय पिलापृष्ठ पर एक साथ बैठ गये। वहाँ वे दोनों ब्रह्मर्षिंयों, देवताओं, दैत्यों, तथा प्राचीन महात्माओं के सम्बन्ध में नाना प्रकार की कथा-वार्ता करने लगे। उस समय सुवर्ण ने स्वायम्भुव मनु से कहा- ‘प्रजापते! मैं एक प्रश्न करता हूं, आप समस्त प्राणियों के हित के लिये मुझे उसका उत्तर दीजिये। फूलों से जो देवताओं की पूजा की जाती है, यह क्या है? इसका प्रचलन कैसे हुआ है? इसका फल क्या है और इसका उपयोग क्या है? यह सब मुझे बताइये।’
सुवर्ण-मनु संवाद
मनु जी ने कहा- मुने। इस विषय में विज्ञजन शुक्राचार्य और बलि- इन दोनों महात्माओं के संवाद यप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पहले की बात है, विरोचन कुमार बलि तीनों लोकों का शासन करते थे। उन दिनों भृगृकुल भूषण शुक्र शीघ्रतापूर्वक उनके पास आये। पर्याप्त दक्षिण देने वाले असुरराज बलि ने भृगुपुत्र शुक्राचार्य को अर्ध्य आदि देकर उनकी विधिवत पूजा की और जब वे आसन पर बैठ गये, तब बलि भी अपने सिंहासन पर आसीन हुए। वहाँ उन दोनों में यही बातचीत हुई, जिसे तुमने प्रस्तुत किया है। देवताओं को फूल, धूप और दीप देने से क्या फल मिलता है, यही उनकी वार्ता का विषय था। उस समय दैत्यराज बलि ने कविवर शुक्र के सामने यह उत्तम प्रश्न उपस्थित किया।
बलि ने पूछा- ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ! द्विजशिरोमणे! फूल, धूप और दीपदान करने का क्या फल है? यह बताने की कृपा करें।
पुष्प, धूप, दीप के दान माहात्म्य
शुक्राचार्य ने कहा- राजन! पहले तपस्या की उत्पत्ति हुई है, तदनन्तर धर्म की। इसी बीच में लता और औषधियों का प्रादुर्भाव हुआ है। इस भूतल पर अनेक प्रकार की सोमलता प्रकट हुई। अमृत, विष तथा दूसरी-दूसरी जाति के तृणों का प्रादुर्भाव हुआ। अमृत वह है, जिसे देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। जो तत्काल तृप्ति प्रदान करता है और विष वह है जो अपनी गन्ध से चित्त में सर्वथा तीव्र ग्लानि पैदा करता है। अमृत को मंगलकारी जानो ओर विष महान अमंगल करने वाला है। जितनी औषधियाँ हैं, वे सब-की-सब अमृत मानी गयी हैं और विष अग्निजनित तेज है। [1]
फूल मन को आह्लाद प्रदान करता है और शोभा एवं सम्पत्ति का आधान करता है, इसलिये पुण्यात्मा मनुष्यों ने उसे सुमन कहा है। जो मनुष्य पवित्र होकर देवताओं को फूल चढ़ाता है, उसके ऊपर सब देवता संतुष्ट होते और उसके लिये पुष्टि प्रदान करते हैं। प्रभो! दैत्यराज जिस-जिस देवता के उद्देश्य से फूल दिये जाते हैं, वह उस पुष्पदान से दाता पर बहुत प्रसन्न होता और उसके मंगल के लिये सचेष्ट रहता है। उग्रा, सौम्या, तेजस्विनी, बहुवीर्या और बहुरूपा- अनेक प्रकार की औषधियां होती हैं। उन सबको जानना चाहिये।
अब यज्ञ सम्बन्धी तथा अयज्ञोपयोगी वृक्षों का वर्णन सुनो। असुरों के लिये हितकर तथा देवताओं के लिये प्रिय जो पुष्पमालाऐं होती हैं, उनका परिचय सुनो। राक्षस, नाग, यक्ष, मनुष्य और पितरों को प्रिय एवं मनोरम लगने वाली औषधियों का भी वर्णन करता हूं, सुनो। फूलों के बहुत-से वृक्ष गांवों में होते हैं और बहुत-से जंगलों में। बहुतेरे वृक्ष जमीन को जोतकर क्यारियों में लगाये जाते हैं और बहुत-से पर्वत आदि पर अपने-आप पैदा होते हैं। इन वृक्षों में कुछ तो कांटेदार होते हैं और कुछ बिना कांटे के। इन सब में रूप, रस और गन्ध विद्यमान रहते हैं।
फूलों की गन्ध दो प्रकार की होती है- अच्छी और बुरी। अच्छी गन्ध वाले फूल देवताओं को प्रिय होते हैं। इस बात को ध्यान में रखो। प्रभो। जिन वृक्षों में कांटे नहीं होते हैं, उनमें जो अधिकांश श्वेतवर्ण वाले हैं, उन्हीं के फूल देवताओं को सदैव प्रिय हैं। कमल, तुलसी और चमेली- ये सब फूलों में अधिक प्रशंसित हैं। जल से उत्पन्न होने वाले जो कमल-उत्पल आदि पुष्प हैं, उन्हें विद्वान पुरुष गन्धर्वों, नागों और यक्षों को समर्पित करे। अथर्ववेद में बतलाया गया है कि शत्रुओं का अनिष्ट करने के लिये किये जाने वाले अभिचार कर्म में लाल फूलों वाली कड़वी और कण्टकाकीर्ण औषधियों का उपयोग करना चाहिये।
जिन फूलों में कांटे अधिक हो, जिनका हाथ से स्पर्श करना कठिन जान पड़े, जिनका रंग अधिकतर लाल या काला हो तथा जिनकी गन्ध का प्रभाव तीव्र हो, ऐसे फूल भूत-प्रेतों के काम आते हैं। अतः उनको वैसे ही फूल भेंट करने चाहिये। प्रभो। मनुष्यों को तो वे ही फूल प्रिय लगते हैं, जिनका रूप-रंग सुन्दर और रस विशेष मधुर हो, तथा जो देखने पर हृदय को आनन्ददायी जान पड़े।
श्मशान तथा जीर्ण-शीर्ण देवालय में पैदा हुए फूलों के पौष्टिक कर्म, विवाह तथा एकान्त विहार में उपयोग नहीं करना चाहिये। पर्वतों के शिखर पर उत्पन्न हुऐ सुन्दर और सुगन्धित पुष्पों को धोकर अथवा उन पर जल के छींटे देकर धर्मशास्त्रों में बताये अनुसार उन्हें यथायोग्य देवताओं पर चढाना चाहिये। देवता फूलों की सुगन्ध से, यक्ष और राक्षस उनके दर्शन से, नागगण उनका भलीभाँति उपभोग करने से और मनुष्य उकने दर्शन, गन्ध एवं उपभोग तीनों से ही संतुष्ट होते हैं। फूल चढ़ाने से मनुष्य देवताओं को तत्काल संतुष्ट करता है और संतुष्ट होकर वे सिद्वसंकल्प देवता मनुष्यों को मनोवांछित एवं मनोरम भोग देकर उनकी भलाई करते हैं।[2]
देवताओं को यदि सदा संतुष्ट और सम्मानित किया जाता है तो वे भी मनुष्यों को संतोष एवं सम्मान देते हैं तथा यदि उनकी अवज्ञा एवं अवहेलना की गयी तो वे अवज्ञा करने वाले नीच मनुष्य को अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर डालते हैं। इसके बाद अब मैं धूपदान की विधि का फल बताऊंगा। धूप भी अच्छे और बुरे कई तरह के होते हैं। उनका वर्णन मुझसे सुनो।
धूप के मुख्यतः तीन भेद हैं- निर्यास, सारी और कृत्रिम। इन धूपों की गंध भी अच्छी और बुरी दो प्रकार की होती है। ये सब बातें मुझसे विस्तारपूर्वक सुनो। वृक्षों के रस (गोंद) को निर्यास कहते हैं, सल्लकी नामक वृक्ष के सिवा अन्य वृक्षों के प्रकट हुए नियासमय धूप देवताओं को बहुत प्रिय होते हैं। उनमें भी गुग्गुल सबसे श्रेष्ठ है। ऐसा मनीषी पुरुषों का निश्चय है। जिन काष्ठों को आग में जलाने पर सुगंध प्रकट होती है, उन्हें सारी धूप कहते है। इनमें अगुरु की प्रधानता है। सारी धूप विशेषतः यक्ष, राक्षस, और नागों को प्रिय होते हैं।
दैत्य लोग सल्ल की तथा उसी तरह अन्य वृक्षों की गोंद का बना हुआ धूप पसंद करते हैं। पृथ्वीनाथ। राल आदि के सुगन्धित चूर्ण तथा सुगन्धित काष्ठोषधियों के चूर्ण को घी और शक्कर से मिश्रित करके जो अष्टगंध आदि धूप तैयार किया जाता है, वही कृत्रिम है। विशेषतः वही मनुष्यों के उपयोग में आता है। वैसा धूप देवताओं, दानवों और भूतों के लिये भी तत्काल संतोष प्रदान करने वाला माना गया है। इनके सिवा विहार (भोग-विलास) के उपयोग में आने वाले और भी अनेक प्रकार के धूप हैं, जो केवल मनुष्यों के व्यवहार में आते हैं।
देवताओं को पुष्पदान करने से जो गुण या लाभ बताये गये हैं, वे ही धूप निवेदन करने से भी प्राप्त होते हैं। ऐसा जानना चाहिये। धूप भी देवताओं की प्रसन्नता बढ़ाने वाले हैं। अब मैं दीपदान का परम उत्तम फल बताऊंगा। कब किस प्रकार किसके द्वारा दीप दिये जाने चाहिये, यह सब बताता हूं, सुनो। दीपक उध्वगामी तेज है, वह कांति और कीर्ति का विस्तार करने वाला बताया जाता है। अतः दीप या तेज का दान मनुष्यों के तेज की वृद्धि करता है। अंधका अंधतामिस्त्र नामक नरक है। दक्षिणायान भी अंधकार से ही आच्छन्न रहत है।
इसके विपरीत उत्तरायण प्रकाशमय है। इसलिये वह श्रेष्ट माना गया है। अतः अन्धकारमय नरक की निवृत्ति के लिये दीप दान की प्रशंसा की गयी है। दीपक की षिखा उर्ध्वगामिनी होती है। वह अन्धकाररूपी रोग को दूर करने की दवा है। इसलिये जो दीप दान करता है, उसे निश्चय ही उर्ध्वगति की प्राप्ति होती है। देवता तेजस्वी, कांतिमान और प्रकाश फैलाने वाले होते हैं और राक्षक अन्धकार प्रिय होते हैं; इसलिये देवताओं की प्रसन्नता के लिये दीप दान किया जाता है। दीपदान करने से मनुष्य के नेत्रों का तेज वढ़ता है। और वह स्वयं ही तेजस्वी होता है। दान करने के पश्चात् उन दीपकों को न तो बुझावें, न उठाकर अन्यत्र ले जायें और न नष्ट ही करें।[3]
दीपक चुराने वाला मनुष्य अन्धा और श्रीहीन होता है तथा मरने के बाद नरक में पड़ता है, किंतु जो दीपदान करता है, वह स्वर्गलोक में दीपमाला की भाँति प्रकाशित होता है। घी का दीपक जलाकर दान करना प्रथम श्रेणी का दीप-दान है। औषधियों के रस अर्थात तिल-सरसों आदि के तेल से जलाकर किया हुआ दीपदान दूसरी श्रेणी का है। जो अपने शरीर की पुष्टि चाहता हो- उसे चर्वी, मेदा और हड्डियों से निकाले हुए तेल के द्वारा कदापि दीपक नहीं जलाना चाहिये। जो अपने कल्याण की इच्छा रखता हो, उसे प्रतिदिन पर्वतीय झरने के पास, वन में, देव मन्दिर में, चैराहे पर, गौशाला में, ब्राह्मण के घर में तथा दुर्गम स्थान में प्रतिदिन दीपदान करना चाहिये।
उक्त स्थानों में दिया हुआ पवित्र दीप एश्वर्य प्रदान करने वाला होता है। दीप दान करने वाला पुरुष अपने कुल को उद्वीप्त करने वाला, शुद्धचित्त तथा श्रीसम्पन्न होता है और अन्त में वह प्रकाशमय लोकों में जाता है। अब मैं देवताओं, यक्षों, नागों, मनुष्यों, भूतों तथा राक्षसों को बलि समर्पण करने से जो लाभ होता है, जिन फलों का उदय होता है, उनका वर्णन करूंगा। जो लोग अपने भोजन करने से पहले देवताओं, ब्राह्मणों, अतिथियों और बालकों को भोजन नहीं कराते उन्हें भय रहित अमंगलकारी राक्षस ही समझो। अतः गृहस्थ मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह आलस्य छोड़कर देवताओं की पूजा करके उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करे और शुद्धचित्त हो सर्वप्रथम उन्हीं को आदरपूर्वक अन्न का भाग अर्पण करे। क्योंकि देवता लोग सदा गृहस्थ मनुष्यों को दी हुई बलि को स्वीकार करते और उन्हें आशीर्वाद देते हैं।
देवता, पितर, यक्ष, राक्षस, सर्प तथा वाहर से आये हुए अन्य अतिथि आदि गृहस्थ के दिये हुए अन्न से ही जीविका चलाते हैं और प्रसन्न होकर उस गृहस्थ को आयु, यश तथा धन के द्वारा संतुष्ट करते हैं। देवताओं को जो बलि दी जाये, वह दही, दूध की बनी हुई, परम पवित्र, सुगन्धित, दर्षनीय और फूलों से सुशोभित होनी चाहिये। आसुर स्वभाव के लोग यक्ष और राक्षसों को रूधिर और मांस से युक्त बलि अर्पित करते हैं। जिसके साथ सुरा और आसव भी रहता है तथा ऊपर से धान का लावा छींट कर उस बलि को विभूषित किया जाता है। नागों को पघ और उत्पल युक्त बलि प्रिय होती है।
गुड़ मिश्रित तिल भूतों को भेंट करें। जो मनुष्य देवता आदि को पहले बलि प्रदान करके भोजन करता है, वह उत्तम भोग से सम्पन्न, बलवान और वीर्यवान होता है। इसलिये देवताओं को सम्मान पूर्वक अन्न पहले अर्पण करना चाहिये। गृहस्थ के घर की अधिष्ठातृ देवियां उसके घर को सदा प्रकाशित किये रहती हैं, अतः कल्याणकामी मनुष्य को चाहिये कि भोजन प्रथम भाग देकर सदा ही उनकी पूजा किया करें। भीष्म जी कहते हैं राजन! इस प्रकार शुक्राचार्य ने असुरराज बलि को यह प्रसंग सुनाया और मनु ने तपस्वी सुवर्ण को इसका उपदेश दिया। तत्पश्चात तपस्वी सुवर्ण ने नारद जी को और नारद जी ने मुझे धूप, दीप आदि के दान के गुण बताये। महातेजस्वी पुत्र! तुम भी इस विधि को जानकर इसी के अनुसार सब काम करो।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 97 श्लोक 1-20
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 98 श्लोक 20-36
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 98 श्लोक 37-50
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 98 श्लोक 51-66
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| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
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| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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