श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी97. सार्वभौम भक्त बन गये
भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे- पूर्वजन्मों के पापों का संचय विशेष न हो, भगवत्कृपा हो और किसी प्रकार से सही, हृदय में श्रद्धा के भाव हों, तो पुरुष के उद्धार में देर नहीं लगती। साधु-समागम होते ही बड़े-बड़े दुराचारी दुष्कर्मों का परित्याग करके परम भागवत बन गये हैं। सत्संग की महिमा ही ऐसी अपार है। तभी तो भर्तृहरिजी ने कहा है- ‘सत्संगति: कथय किं न करोति पुंसाम्?’ अर्थात ‘सत्संगति से मनुष्य की कौन-सी भलाई नहीं हो सकती ?’ सारांश यही है, कि सत्संगति से सभी प्रकार के बन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, किंतु सबको सत्संगति प्राप्त करने का सौभाग्य नहीं होता। जिसके संसारी बन्धनों के छूटने का समय समीप आ चुका है, जिसके ऊपर आदिपुरुष अच्युत का पूर्ण अनुग्रह है, उसे ही साधु पुरुषों की संत्सगति प्राप्त हो सकती है। सार्वभौम भट्टाचार्य विद्वान थे, पण्डित थे, शास्त्रज्ञ थे और वर्णाश्रमधर्म में श्रद्धा रखते थे। शास्त्रोक्त वैदिक कर्मों को भी वे यथाशक्ति करते थे और घर पर आते हुए साधु-अभ्यागतों का प्रेमपूर्वक सत्कार करते थे तथा अंदर-ही-अंदर प्रभु प्राप्ति के लिये छटपटाते भी थे। ऐसी दशा में वे भगवत्कृपा के सर्वथा योग्य थे। उन्हें साधु-समागम मिलना ही चाहिये। इसीलिये मानो सार्वभौम का ही उद्धार करने के निमित्त प्रभु वृन्दावन न जाकर पुरी पधारे और सबसे पहले सार्वभौम के घर को ही अपनी पद-धूलि से परम पावन बनाया। उन भक्ताग्रगण्य सार्वभौम महाशय के चरणों में हमारे कोटि-कोटि नमस्कार हैं। सार्वभौम के निमन्त्रण को स्वीकार करके प्रभु उनके घर भिक्षा करने के लिये पधारे। सार्वभौम ने उन्हें श्रद्धापूर्वक भिक्षा करवायी और उनका संन्यासी के योग्य सत्कार किया। अन्त में वात्सल्यभाव प्रकट करते हुए उन्होंने अत्यन्त ही स्नेह के साथ कहा- ‘स्वामी जी ! हमारी एक प्रार्थना है, अभी आपकी अवस्था बहुत कम है, इस अवस्था का वैराग्य प्राय: स्थायी नहीं होता। अधिकतर इस अवस्था वाले त्यागियों का कुछ काल में वैराग्य मन्द ही पड़ जाता है और वैराग्य के बिना त्याग टिक नहीं सकता। इसीलिये थोड़ी अवस्था के अधिकांश साधु अपने धर्म से पतित हो जाते हैं। अतएव आपको निरन्तर ऐसे कार्यों में लगे रहना चाहिये, जिनसे संसारी विषयों के प्रति अधिकाधिक वैराग्य के भाव उत्पन्न होते रहें। हमारे वहाँ वेदान्तदर्शन के कई पाठ होते हैं, आपकी इच्छा हो, तो यहाँ आकर सुना करें। बेकार रहने से मन में बुरे-बुरे विचार उत्पन्न होते हैं। जो निरन्तर शुभ-कर्मों में आत्मशुद्धि की इच्छा से लगा रहता है, उसके मन में बुरे विचार उठ ही नहीं सकते। इसलिये आप पाठशाला में आकर वेदान्तसूत्रों की व्याख्या सुना करें। यही साधक संन्यासियों का परम धर्म हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे अच्युत ! संसार की नाना योनियों में घूमने वाले पुरुष के बन्धन का जब तुम्हारे अनुग्रह से नाश होने का समय आता है, तब ही उसे सत्संग प्राप्त होता है। और जब साधु-समागम होता है, तभी साधुओं के शरण्य, कार्यकारणों के नियन्ता आप परमेश्वर में मति स्थिर होती है। श्रीमद्भा. 10/51/54