गोपाल चरवाहा
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पूरा नाम | गोपाल चरवाहा |
कर्म भूमि | भारत |
प्रसिद्धि | भक्त |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | श्रीकृष्ण, श्रीराधा, गोप |
अन्य जानकारी | एक दिन भगवान ने गोपाल चरवाहा को दर्शन दिए और उनको गोद में उठा लिया और बाले- "गोपाल ! तू रो मत। देख, मैं तेरी रोटियाँ खाता हूँ। मुझे ऐसा ही अन्न प्रिय है। अब तू यहाँ से घर जा। अब तुझे कोई चिन्ता नहीं। अपने बन्धु-बान्धवों के साथ सुखपूर्वक जीवन बिता! अन्त में तू मेरे गोलोक-धाम आयेगा।" |
गोपाल चरवाहा भगवान गोविन्द का परम भक्त था। वह पढ़ा-लिखा नहीं था। वह दिनभर गायों को जंगल में चराया करता था। गोपाल सीधा, सरल और निश्चिन्त था।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।।
विषय सूची
परिचय
उत्तर प्रान्त की कमलावती नगरी में गोपाल नाम का एक ग्वाला रहता था। न वह पढ़ा-लिखा था और न उसने कथा-वार्ता सुनी थी। दिनभर गायों को जंगल में चराया करता था। दोपहर को स्त्री छाक पहुँचा दिया करती थी। गोपाल सीधा, सरल और निश्चिन्त था। उसे ‘राम-राम’ जपने की आदत पड़ गयी थी, सो उसका जप वह सुबह-शाम थोड़ा-बहुत कर लेता था। इस प्रकार उसकी उमर पचास वर्ष की हो गयी। बराबर वाले उसे चिढ़ाया करते थे- ‘राम-राम रटने से वैकुण्ठ के विमान का पाया हाथ नहीं आने का।'[1]
गुरुदेव की प्रतीक्षा
एक दिन गोपाल को उसके साथी चिढ़ा रहे थे। उसी रास्ते एक संत जा रहे थे। उन्होंने चिढ़ाने वालों से कहा- "भाई ! तुम लोग बड़ी गलती कर रहे हो। भगवान के नाम की महिमा तुम नहीं जानते। यह बूढ़ा चरवाहा यदि इसी प्रकार श्रद्धा से भगवान का नाम लेता रहेगा तो इसे संसार-सागर से पार कर देने वाले गुरु अवश्य मिल जायँगे। भगवान का नाम तो सारे पापों को तुरंत भस्म कर देता है।'
गोपाल को अब विश्वास हो गया कि ‘मुझे अवश्य गुरु मिलेंगे और उनकी कृपा से मैं भगवान के दर्शन कर सकूँगा।' वह अब बराबर गुरुदेव की प्रतीक्षा करने लगा। वह सोचता- ‘गुरु जी को मैं झट संत के बताये लक्षणों से पहचान लूँगा। उन्हें ताजा दूध पिलाउँगा। वे मुझ पर राजी हो जायँगे। मेरे गुरु जी बड़े भारी ज्ञानी होंगे। भला, उनका ज्ञान मेरी समझ में तो कैसे आ सकता है। मैं तो उनसे एक बात पूछूँगा। मुझसे बहुत-सी झंझट नहीं होगी।'
गोपाल की उत्कण्ठा तीव्र थी। वह बार-बार रास्ते पर जाकर देखता, पेड़ पर चढ़कर देखता, लोगों से पूछता- ‘कोई संत तो इधर नहीं आये?' कभी-कभी व्याकुल होकर गुरु जी के न आने से रोने लगता। अपने अनदेखे, अनजाने गुरु को जैसे वह खूब जान चुका है।
संत का आगमन
एक दिन प्रतीक्षा में गोपाल ने दूर से एक संत को आते देखा। उसका हृदय आनन्द से पूर्ण हो गया। उसने समझ लिया कि उसके गुरुदेव आ गये। उन्हें ताजा दूध पिलाने के लिये झटपट वह गाय दुहने बैठ गया। इतने में वे संत पास आ गये। दुहना अधूरा छोड़कर एक हाथ में दूध का बर्तन और दूसरे में अपनी लाठी लिये वह खड़ा हो गया और बोला- "महाराज ! तनिक दूध तो पीते जाओ!"
साधु ने आतुर शब्द सुना तो रुक गये। गोपाल के हाथ तो फँसे थे, संत के सामने जाकर उसने मस्तक झुकाया और सरल भाव से बोला- "लो ! यह दूध पी लो और मुझे उपदेश देकर कृतार्थ करो। मुझे भवसागर से पार कर दो। महाराज ! अब मैं तुम्हारे चरण नहीं छोड़ूँगा।" दूध का बर्तन और लाठी एक ओर रखकर वह संत के चरणों से लिपट गया। उसके नेत्रों से झरझर आँसू गिरने लगे।
संत एक बार तो यह सब देखकर चकित हो गये। फिर गोपाल के सरल भक्तिभाव को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने गोपाल से घर चलकर स्नान करके दीक्षा लेने को कहा। गोपाल बोला- "महाराज ! मुझे तो वन में रहकर गायें चराना ही आता है। स्नान-पूजा तो मैं जानता नहीं। घर भी कभी-कभी जाता हूँ। मैं गवाँर हूँ। मुझसे बहुत बातें सधेंगी भी नहीं। मैं तो उन्हें भूल ही जाउँगा। मुझे तो आप कोई एक बात बतला दें और अभी यहीं बतला दें। मैं उसका पालन करूँगा।"
ऐसे भोले भक्त पर तो भगवान भी रीझ जाते हैं। संत ने मानसिक आसन-शुद्धि आदि करके अपने कमण्डलु के जल से उस पर छींट मारा और मंत्र देकर बोले- "देखो ! अब से तुम्हें जो कुछ खाना हो, भगवान गोविन्द का भोग लगाकर ही खाया करो। इसी एक साधन से तुम पर गोविन्द भगवान की कृपा हो जायगी।"
गोपाल ने पूछा- "महाराज ! मैं आपकी आज्ञा का पालन तो करूँगा; पर गोविन्द भगवान कहाँ मिलेंगे कि उन्हें रोज भोग लगाकर तब भोजन करूँगा?"
संत ने भगवान के स्वरूप का वर्णन करके कहा- "भगवान तो सब जगह हैं, सबके भीतर हैं। तुम उनके रूप का ध्यान करके उन्हें पुकार लेना और उनको भोग लगाना। भूलना मत ! उन्हें भोग लगाये बिना कोई पदार्थ मत खा लेना।" यह उपदेश देकर गोपाल का दूध ग्रहण करके महात्मा जी चले गये।
गोपाल की प्रार्थना
दोपहर को गोपाल की स्त्री आयी और छाक देकर चली गयी। गोपाल को अब गुरु जी की बात स्मरण आयी। एकान्त में जाकर पत्ते पर रोटियाँ परोसकर तुलसीदल डालकर वे गोविन्द भगवान का ध्यान करते हुए प्रार्थना करने लगे- "हे गोविन्द ! लो, ये रोटियाँ रखी हैं। इनका भोग लगाओ ! मेरे गुरुदेव कह गये हैं कि भगवान को भोग लगाकर जो प्रसादी बचे, वही खाना। मुझे बहुत भूख लगी है; किंतु तुम्हारे भोग लगाये बिना मैं नहीं खाउँगा। देर मत करो। जल्दी आकर भोग लगाओ।"
गोपाल प्रार्थना करते-करते थक गये, सन्ध्या हो गयी; पर गोविन्द नहीं पधारे। जब भगवान ने भोग नहीं लगाया, तब गोपाल कैसे खा ले। रोटियाँ जंगल में उसने फेंक दीं और गोशाला लौट आया। गोपाल का शरीर उपवास से सूखता चला गया। इसी प्रकार अठारह दिन बीत गये। खड़े होने में चक्कर आने लगा। आँखें गड्ढों में घुस गयीं। स्त्री-पुत्र घबराकर बार बार कारण पूछने लगे, पर गोपाल कुछ नहीं बताता। वह सोचता है- "एक दिन मरना तो है ही, गुरु महाराज की आज्ञा तोड़ने का पाप करके क्यों मरूँ। मेरे गुरुदेव की आज्ञा तो सत्य ही है। यहाँ न सही, मरने पर परलोक में तो मुझे भगवान के दर्शन होंगे।" उपवास को नौ दिन और बीत गये। आज सत्ताईस दिन हो चुके। गोपाल के नेत्र अब सफेद हो गये हैं। वह उठकर बैठ भी नहीं सकता। आज जब उसकी स्त्री छाक लेकर आयी, तब जाना ही नहीं चाहती थी गोशाला से उसे किसी प्रकार गोपाल ने घर भेजा। बड़ी कठिनता से छाक परसकर वह भूमि पर लेट गया। आज बैठा न रह सका। आज अन्तिम प्रार्थना करनी है उसे। वह जानता है कि कल फिर प्रार्थना करने को देह में प्राण नहीं रहेंगे! आज वह गोविन्द भगवान को रोटी खाने के लिये हृदय के अन्तिम बल से पुकार रहा है।
गोविन्द के दर्शन
यह क्या हुआ? इतना तेज, इतना प्रकाश कहाँ से गोशाला में आ गया? गोपाल ने देखा कि उसके सामने गुरु जी के बताये वही गोविन्द भगवान खड़े हैं। एक शब्द तक उसके मुख से नहीं निकला। भगवान के चरणों पर उसने सिर रख दिया। उसके नेत्रों की धारा ने उन लाल-लाल चरणों को धो दिया। भगवान ने भक्त को गोद में उठा लिया और बाले- "गोपाल ! तू रो मत। देख, मैं तेरी रोटियाँ खाता हूँ। मुझे ऐसा ही अन्न प्रिय है। अब तू यहाँ से घर जा। अब तुझे कोई चिन्ता नहीं। अपने बन्धु-बान्धवों के साथ सुखपूर्वक जीवन बिता! अन्त में तू मेरे गोलोक-धाम आयेगा।"
- भगवान ने उसकी रोटियाँ खायीं और उसके लिये प्रसाद छोड़कर अन्तर्धान हो गये। गोपाल ने ज्यों ही उस प्रसाद को ग्रहण किया, उसका हृदय आनन्द से भर गया। उसकी भूख-प्यास, दुर्बलता, थकावट- सब क्षणभर में चली गयी। आज सत्ताईस दिन के उपवास की भूख-प्यास तथा दुर्बलता ही नहीं दूर हुई, अनन्तकाल की दुर्बलता दूर हो गयी।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 672
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