उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 14 में उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या का वर्णन हुआ है[1]

उपमन्यु द्वारा पशुपति के दर्शन का वर्णन

प्रभो! तात माधव! मैंने भी पूर्वकाल में साक्षात देवाधिदेव पशुपति का जिस प्रकार दर्शन किया था, वह प्रसंग सुनिये। भगवन! मैंने जिस उद्देश्य से प्रयत्‍नपूर्वक महातेजस्‍वी महादेव जी को संतुष्‍ट किया था, वह सब विस्‍तारपूर्वक सुनिये। अनघ! पूर्वकाल में मुझे देवाधिदेव महेश्वर से जो कुछ प्राप्‍त हुआ था, वह सब आज पूर्ण रूप से तुम्‍हें बताऊँगा। तात! पहले सत्‍ययुग में एक महायशस्‍वी ऋषि हो गये हैं,जो व्‍याघ्रपाद नाम से प्रसिद्ध थे। वे वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान थे। उन्‍हीं का मैं पुत्र हूँ। मेरे छोटे भाई का नाम धौम्‍य है। माधव! किसी समय मैं धौम्‍य के साथ खेलता हुआ पवित्रात्‍मा मुनियों के आश्रम पर आया। वहाँ मैंने देखा, एक दुधारू गाय दुही जा रही थी। वहीं मैंने दूध देखा, जो स्‍वाद में अमृत के समान होता है। तब मैंने बाल स्‍वभाव वश अपनी माता से कहा- 'मां! मुझे खाने के लिये दूध-भात दो।' घर में दूध का अभाव था, इसलिये मेरी माता को उस समय बड़ा दु:ख हुआ। माधव! तब वह पानी में आटा घोलकर ले आयी और दूध कहकर दोनों को पीने के लिये दे दिया। तात! उसके पहले एक दिन मैंने गाय का दूध पीया था। पिता जी यज्ञ के समय एक बड़े भारी धनी कुटुम्‍बी के घर मुझे ले गये थे। वहाँ दिव्‍य सुरभी गाय दूध दे रही थी। उस अमृत के समान स्‍वादिष्‍ट दूध को पीकर मैं यह जान गया था कि दूध का स्‍वाद कैसा होता है और उसकी उपलब्धि किस प्रकार होती है।[1]

तात! इसीलिये वह आटे का रस मुझे प्रिय नहीं लगा, अत: मैंने बाल स्‍वभाव वश ही अपनी माता से कहा- 'मां! तुमने मुझे जो दिया है, यह दूध-भात नहीं है।' माधव! तब मेरी माता दु:ख और शोक में मग्‍न हो पुत्रस्‍नेह वश मुझे हृदय से लगाकर मेरे मस्‍तक सूंघती हुई मुझसे बोली- 'बेटा! जो सदा वन में रहकर कन्‍द, मूल और फल खाकर निर्वाह करते हैं, उन पवित्र अन्‍त:करण वाले मुनियों को भला दूध-भात कहाँ से मिल सकता है? 'जो बालखिल्‍यों द्वारा सेवित दिव्‍य नदी गंगा का सहारा लिये बैठे हैं, पर्वतों और वनों में रहने वाले उन मुनियों को दूध कहाँ से मिलेगा? 'जो पवित्र हैं, वन में ही होने वाली वस्‍तुएं खाते हैं, वन के आश्रमों में ही निवास करते हैं, ग्रामीण आहार से निवृत होकर जंगल के फल-फूलों का ही भोजन करते हैं, उन्‍हें दूध कैसे मिल सकता है? 'बेटा! यहाँ सुरभी गाय की कोई संतान नहीं है, अत: इस जंगल में दूध का सर्वथा अभाव है। नदी, कन्‍दरा, पर्वत और नाना प्रकार के तीर्थों में तपस्‍यापूर्वक जप में तत्‍पर रहने वाले हम ऋषि-मुनियों के भगवान शंकर ही परम आश्रय हैं।

माता द्वारा शिव का वर्णन

'वत्‍स! जो सबको वर देने वाले, नित्‍य स्थिर रहने वाले और अविनाशी ईश्‍वर हैं, उन भगवान विरुपाक्ष को प्रसन्‍न किये बिना दूध-भात और सुखदायक वस्‍त्र कैसे मिल सकते हैं? 'बेटा! सदा सर्वभाव से उन्‍हीं भगवान शंकर की शरण लेकर उनकी कृपा से इच्‍छानुसार फल पा सकोगे।' शत्रुसूदन! जननी की वह बात सुनकर उसी समय मैंने उनके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर माता जी से यह पूछा -'अम्‍बे! ये महादेव जी कौन हैं? और कैसे प्रसन्‍न होते हैं? वे शिव देवता कहाँ रहते हैं और कैसे उनका दर्शन किया जा सकता है? मेरी मां! यह बताओं कि शिव जी का रूप कैसा है? वे कैसे संतुष्‍ट होते हैं? उन्‍हें किस तरह जाना जाये अथवा वे कैसे प्रसन्‍न होकर मुझे दर्शन दे सकते हैं?' सच्चिदानन्‍दस्‍वरूप गोविन्‍द! सुरश्रेष्‍ठ मधुसूदन! मेरे इस प्रकार पूछने पर मेरी पुत्रवत्‍सला माता के नेत्रों में आंसू भर आये। वह मेरा मस्‍तक सूंघकर मेरे सभी अंगो पर हाथ फेरने लगी और कुछ दीन-सी होकर यों बोली। माता ने कहा- जिन्‍होंने अपने मन को वश में नहीं किया है, ऐसे लोगों के लिये महादेव जी का ज्ञान होना बहुत कठिन है, उनको मन से धारण करने में आना मुश्किल है। उनकी प्राप्ति के मार्ग में बड़े-बड़े विघ्‍न हैं। दुस्‍तर बाधाएं हैं। उनका ग्रहण और दर्शन होना भी अत्‍यन्‍त कठिन है। मनीषी पुरुष कहते हैं कि भगवान शंकर के अनेक रूप हैं। उनके रहने के विचित्र स्‍थान हैं और उनका कृपा प्रसाद भी अनेक रूपों में प्रकट होता है। पूर्व काल में देवाधिदेव महादेव ने जो-जो रूप धारण किये हैं, ईश्‍वर के उस शुभ चरित्र को कौन यथार्थ रूप से जानता है? वे कैसे क्रीड़ा करते हैं और किस तरह प्रसन्‍न होते हैं? यह कौन समझ सकता है।[2]

वे विश्वरूपधारी महेश्वर समस्‍त प्राणियों के हृदय मन्दिर में विराजमान हैं। वे भक्‍तों पर कृपा करने के लिये किस प्रकार दर्शन देते हैं? यह शंकर जी के दिव्‍य एक कल्‍याणमय चरित्र का वर्णन करने वाले मुनियों के मुख से जैसा मैंने सुना है वह बताऊँगी। वत्‍स! उन्‍होंने ब्रह्माणों पर अनुग्रह करने के लिये देवताओं द्वारा कथित जो-जो रूप ग्रहण किये हैं, उन्‍हें संक्षेप से सुनो। वत्‍स! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वे सारी बातें मैं तुम्‍हें बताऊँगी। ऐसा कहकर मा‍ता फिर कहने लगीं- भगवान शिव, ब्रह्मा, विष्‍णु, इन्‍द्र, रुद्र, आदित्‍य, अश्विनी कुमार तथा सम्‍पूर्ण देवताओं का शरीर धारण करते हैं। वे भगवान पुरुषों, देवांगनाओं, प्रेतों, पिशाचों, किरातों, शबरों, अनेकानेक जल जन्‍तुओं तथा जंगली भीलों के भी रूप ग्रहण कर लेते हैं। कूर्म, मत्‍स्‍य, शंख, नये-नये पल्‍लवों के अंकुर से सुशोभित होने वाले वसंत आदि के रूपों में भी वे ही प्रकट होते हैं। वे महादेव जी यक्ष, राक्षस, सर्प, दैत्‍य, दानव और पाताल वासियों का भी रूप धारण करते हैं। वे व्‍याघ्र, सिंह मृग, तरक्षु, रीछ, पक्षी, उल्‍लू, कुत्‍ते और सियारों के भी रूप धारण कर लेते हैं। हंस, काक, मोर गिरगिट, सारस, बगले, गीध और चक्रांग (हंसविशेष)- के भी रूप वे महादेव जी धारण करते हैं। पर्वत, गाय, हाथी, घोड़े, ऊँट और गदहे के आकार में भी वे प्रकट हो जाते हैं। वे बकरे और शार्दुल के रूप में उपलब्‍ध होते हैं। नाना प्रकार के मृगों- वन्‍य पशुओं के भी रूप धारण करते हैं तथा भगवान शिव दिव्‍य पक्षियों के भी रूप धारण कर लेते हैं। वे द्विजों के चिन्‍ह दण्‍ड, छत्र और कुण्‍ड (मण्‍डलु) धारण करते हैं। कभी छ: मुख और कभी बहुत-से मुखवाले हो जाते हैं। कभी तीन नेत्र धारण करते हैं। कभी बहुत-से मस्‍तक बना लेते हैं। उनके पैर और कटि भाग अनेक हैं। वे बहुसंख्‍यक पेट और मुख धारण करते हैं। उनके हाथ और पार्श्‍व भाग भी अनेकानेक हैं। अनेक पार्षदगण उन्‍हें सब ओर से घेरे रहते हैं। वे ऋषि और गन्‍धर्व रूप हैं। सिद्ध और चरणों के भी रूप धारण करते हैं। उनका सारा शरीर भस्‍म रमाये रहने से सफेद जान पड़ता है। वे ललाट में अर्द्धचन्‍द्र का आभूषण धारण करते हैं। उनके पास अनेक प्रकार के शब्‍दों का घोष होता रहता है। वे अनेक प्रकार की स्‍तुतियों से सम्‍मानित होते हैं, समस्‍त प्राणियों का संहार करते हैं, स्‍वयं सर्वस्‍वरूप हैं तथा सबके अन्‍तरात्‍मारूप से सम्‍पूर्ण लोकों में प्रतिष्ठित हैं। वे सम्‍पूर्ण जगत के अन्‍तरात्‍मा, सर्वव्‍यापी और सर्ववादी हैं, उन भगवान शिव को सर्वत्र और सम्‍पूर्ण देहधारियों के हृदय में विराजमान जानना चाहिये। जो जिस मनोरथ को चाहता है और जिस उद्देश्‍य से उसके द्वारा भगवान की अर्चना की जाती है, देवेश्‍वर भगवान शिव वह सब जानते हैं। इसलिये यदि तुम कोई वस्‍तु चाहते हो तो उन्‍हीं की शरण लो। वे कभी आनन्दित रहकर आनन्‍द देते, कभी कुपित होकर कोप प्रकट करते ओर कभी हुंकार करते हैं, अपने हाथों में चक्र, शूल, गदा, मूसल, खड्ग और प‍ट्टीश धारण करते हैं। वे धरणीधर शेषनाग रूप हैं, वे नाग की मेखला धारण करते हैं। नागमय कुण्‍डल से कुण्‍डलधारी होते हैं। नागों का ही यज्ञोपवीत धारण करते हैं तथा नागचर्म का ही उत्‍तरीय (चादर) लिये रहते हैं।[3]

उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या

वे अपने गणों के साथ रहकर हंसते हैं, गाते हैं, मनोहर नृत्‍य करते हैं और विचित्र बाजे भी बजाते हैं। भगवान रुद्र उछलते-कूदते हैं। जंमाई लेते हैं। रोते हैं, रूलाते हैं। कभी पागलों और मतवालों की तरह बातें करते हैं और कभी मधुर स्‍वर से उत्‍तम वचन बोलते हैं। कभी भयंकर रूप धारण करके अपने नेत्रों द्वारा लोगों में त्रास उत्‍पन्‍न करते हुए जोर-जोर से अट्टाहस करते, जागते, सोते और मौज से अंगड़ाई लेते हैं, वे जप करते हैं और वे ही जपे जाते हैं, तप करते हैं और तपे जाते हैं[4] वे दान देते और दान लेते हैं तथा योग और ध्‍यान करते हैं। यज्ञ की वेदी में, यूप में, गौशाला में तथा प्रज्‍वलित अग्नि में वे ही दिखायी देते हैं। बालक, वृद्ध और तरुण रूप में भी उनका दर्शन होता है। वे ऋषिकनयाओं तथा मुनिपत्नियों के साथ खेला करते हैं। कभी उर्ध्‍वकेश [5], कभी महालिंग, कभी नंग-धड़ंग और कभी विकराल नेत्रों से युक्‍त हो जाते हैं। कभी गोरे, कभी सांवले, कभी काले, कभी सफेद कभी धूएं के समान रंग वाले एवं लोहित दिखायी देते हैं। कभी विकृत नेत्रों से युक्‍त होते हैं। कभी सुन्‍दर विशाल नेत्रों से सुशोभित होते हैं। कभी दिगम्‍बर दिखायी देते हैं और कभी सब प्रकार के वस्‍त्रों से विभूषित होते हैं। वे रूपरहित हैं। उनका स्‍वरूप ही सबका आदिकरण है। वे रूप से अतीत हैं। सबसे पहले जिसकी सृष्टि हुई है जल उन्‍हीं का रूप है। इन अजन्‍मा महादेव जी का स्‍वरूप आदि-अन्‍त से रहित है। उसे कौन ठीक-ठीक जान सकता है। भगवान शंकर प्राणियों के हृदय में प्राण, मन एवं जीवात्‍मा रूप से विराजमान हैं। वे ही योगस्‍वरूप, योगी, ध्‍यान तथा परमात्‍मा हैं। भगवान महेश्‍वर भक्तिभाव से ही गृहीत होते हैं। वे बाजा बजाने वाले गीत गाने वाले हैं। उनके लाखों नेत्र हैं। वे एकमुख, द्विमुख, त्रिमुख और अनेक मुखवाले हैं। बेटा! तुम उन्‍हीं के भक्‍त बनकर उन्‍हीं में आसक्‍त रहो। सदा उन्‍हीं पर निर्भर रहो और उन्‍हीं के शरणागत होकर महादेव जी का निरन्‍तर भजन करते रहो। इससे तुम्‍हें मनोवांछित वस्‍तु की प्राप्ति होगी। शत्रुसूदन श्रीकृष्‍ण! माता का वह उपदेश सुनकर तभी से महादेव जी के प्रति मेरी सुदृढ़ भक्ति हो गयी। तदनन्‍तर! मैंने तपस्‍या का आश्रय ले भगवान शंकर को संतुष्‍ट किया। एक हजार वर्ष तक केवल बायें पैर के अंगुठे के अग्रभाग के बल पर मैं खड़ा रहा। पहले तो एक सौ वर्षों तक मैं फलाहारी रहा। दूसरे शतक में गिरे-पड़े सूखे पत्‍ते चबाकर रहा और तीसरे शतक में केवल जल पीकर ही प्राण धारण करता रहा। फिर शेष सात सौ वर्षों तक केवल हवा पीकर रहा। इस प्रकार मैंने एक सहस्‍त्र दिव्‍य वर्षों तक उनकी आराधना की। तदनन्‍तर सम्‍पूर्ण लोकों के स्‍वामी भगवान महादेव मुझे अपना अनन्‍य भक्‍त जानकर संतुष्‍ट हुए और मेरी परीक्षा लेने लगे। उन्‍होनें सम्‍पूर्ण देवताओं से घिरे हुए इन्‍द्र का रूप धारण करके पदार्पण किया। उस समय उनके सहस्‍त्र नेत्र शोभा पा रहे थे। उन महायशस्‍वी इन्‍द्र के हाथ में वज्र प्रकाशित हो रहा था।[6] वे भगवान इन्‍द्र लाल नेत्र और खड़े कान वाले, सुधा के समान उज्‍जवल, मुड़ी हुई सूंड से सुशोभित, चार दांतों से युक्‍त ओर देखने में भयंकर मद से उन्‍मत महान गजराज ऐरावत की पीठ पर बैठकर अपने तेज से प्रकाशित होते हुए वहाँ पधारे। उनके मस्‍तक पर मुकुट, गले में हार और भुजाओं में केयूर शोभा दे रहे थे। सिर पर श्‍वेत छत्र तना हुआ था। अप्‍सराएं उनकी सेवा कर रही थीं और दिव्‍य गन्‍धर्वों के संगीत की मनोरम ध्‍वनि वहाँ सब ओर गूंज रही थी।[7]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 97-119
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 120-136
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 137-155
  4. उन्‍हीं के उद्देश्‍य से तप किया जाता है
  5. उपर उठे हुए बाल वाले
  6. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 156-172
  7. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 173-188

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भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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